पाठ ७ – नदी कंधे पर
यदि हमारा वश चलता तो हम नदी को उठाकर घर ले आते और रोज अपने घर के सामने उसे बहाते हम अपने मित्रों के साथ नदी में खूब उछलते-कूदते और देर तक नहाते।
हम कभी नदी में देर तक तैरते, कभी दुबकियों लगाते, कभी पानी की सतह पर आ जाते। खूब मस्ती करते, गाने गाते अपने सभी परिचितों को आमंत्रित करते और करवाते कि नदी मेरे घर के पास आ गई है, सब लोग नहाने वाली जितने भी लोग हमारे बुलाने पर आते हम सभी सज्जनों का नदी से परिचय करवाते जब कभी हमारे मन में नदी को पार करने का विचार आता तो हम तुरंत नदी पार कर लेते।
तब हम नदी के दूसरी ओर खड़े होकर जोर-जोर से माँ को आवाज लगाते खूब चिल्लाते जल शाम रात में बदलने लगती, तब हम मित्र की सहायता से नदी की अपने कंधे पर रखवाते और वहाँ ले जाकर उसे रख आते जहाँ से लाए थे।
अगर हमारे बस में होता,
नदी उठाकर घर ले आते।
अपने घर के ठीक सामने,
उसको हम हर रोज बहाते।
कूद-कूदकर, उछल-उछलकर,
हम मित्रों के साथ नहाते।
कभी तैरते कभी डूबते,
इतराते गाते मस्ताते।
नदी आ गई चलो नहाने,
आमंत्रित सबको करवाते।
सभी उपस्थित भद्र जनों का,
नदिया से परिचय करवाते।
अगर हमारे मन मेंआता,
झटपट नदी पार कर जाते।
खड़े-खड़े उस पार नदी के,
मम्मी-मम्मी हम चिल्लाते।
शाम ढले फिर नदी उठाकर,
अपने कंधे पर रखवाते।
लाए जहॉं से थेहम उसको,
जाकर उसे वहीं रख आते।
– प्रभुदयाल श्रीवास्तव