व्यावसायिक शिक्षा
प्रस्तावना :
मौलिक रूप से शिक्षा के प्रमुखरूप से दो उद्देश्य होते हैं –
१. मनुष्य के अंदर सामाजिक एवं संस्कृतिक विकास तथा
२. मनुष्य को श्रेष्ठतम रोजगार के योग्य बनाना।
महानतम दार्शनिक प्लेटो का शिक्षा के संदर्भ में यह कथन निश्चित रूप से शिक्षा के उद्देश्य को बहुत हद तक स्पष्ट करता है- ‘जिस दिशा में शिक्षा व्यक्ति की शुरूआत करती है उसी दिशा में जीवन उसके भविष्य का निर्धारण भी करती है।’ इस कथन के आलोक में हम शिक्षा को समझें तो स्पष्ट हो जाता है कि –
कोई भी समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति शिक्षा के माध्यम से करना चाहता है, इसलिए अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप ही वह शिक्षा के पाठ्यक्रम का निर्धारण करता है। आधुनिक भारतीय समाज निर्धनता, बेरोजगारी, जनसंख्या वृद्धि जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। इन समस्याओं का समाधान भारतीय समाज की प्राथमिकताओं में शामिल है। भारत में शिक्षा का उद्देश्य लोगों की आर्थिक स्थिति एवं उनके जीवन स्तर में निरंतर विकास कर समाज में सुख-शांति स्थापित करना भी है। इस दृष्टिकोण से भी शिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाना अनिवार्य है। केवल पुरुषों को शिक्षा प्रदान कर देने से समाज का पूर्ण विकास सम्भव नहीं, स्त्रियों को व्यावसायिक शिक्षा प्रदान कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाना भी देश के विकास के दृष्टिकोण से अनिवार्य है।
शिक्षा का विशिष्ट स्वरूप :
अर्थ की प्रधानता के साथ-साथ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के इस युग में मानव को भी संसाधन की संज्ञा दी गई है, क्योंकि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के साथ-साथ आर्थिक विकास में मानव प्रमुख संसाधन की भूमिका निभाता है, इसलिए वर्तमान में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानव संसाधन का विकास है। मानव संसाधन विकास के अर्थ में ही मानव का शैक्षिक, आर्थिक, तकनीकी, व्यावसायिक इत्यादि विकास भी समाहित है, इसलिए अब शिक्षा के पर्याय के रूप में ‘मानव संसाधन विकास’ पद का प्रयोग किया जाता है। प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा, उच्च शिक्षा, प्रौढ़-शिक्षा एवं दूरस्थ शिक्षा सब मानव संसाधन विकास के ही साथन हैं।
शिक्षा का उद्देश्य आधुनिक संदर्भ :
शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना है, इसलिए शिक्षा का उपयोग सामाजिक विकास के साधन के रूप में किया जाता है। यह राष्ट्रीय एकता एवं विकास को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाता है। इसके द्वारा सामाजिक कुशलता का विकास होता है। यह समाज को कुशल कार्यकर्ताओं की पूर्ती करती है। यह समाज की सभ्यता एवं संस्कृति का संरक्षण, पोषण एवं उसका प्रसार करती है। यह समाज के लिए योग्य नागरिकों का निर्माण करती है। इस तरह, सामाजिक सुधार एवं उन्नति में शिक्षा सहायक होती है। आधुनिक युग में मानव के संसाधन विकास के रूप में शिक्षा की प्रमुख भूमिका होती है। उचित शिक्षा के अभाव में मनुष्य कार्यकुशल नहीं बन सकता। कार्यकुशलता के बिना व्यावसायिक एवं आर्थिक सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। इस तरह, शिक्षा द्वारा मनुष्य का आर्थिक एवं व्यावसायिक विकास होता है।
व्यावसायिक शिक्षा का प्रसार :
शिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाने के लिए व्यावसायिक शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है। अगस्त, 2014 तक भारत में छोटे एवं बड़े कुल 6821 विश्वविद्यालय खोले जा चुके हैं। इनमें व्यावसायिक शिक्षा से सम्बंधित विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों का संचालन किया जाता है। रोजगारपरक व्यावसायिक शिक्षा से सम्बंधित विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों के मानकों के समन्वयन, निर्धारण तथा अनुरक्षण करने के उत्तरदायित्व को निभाने के लिए कुछ संवैधानिक व्यावसायिक परिषदें भी कार्यरत हैं। ये परिषदें हैं – अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्, दूरस्थ शिक्षा परिषद्, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद, भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद् इत्यादि।
ये परिषदें चिकित्सा, अभियाँत्रिकी, विज्ञान, तकनीक, कृषि, औषधि-विज्ञान, अध्यापन, शिक्षा इत्यादि से सम्बंधित विभिन्न प्रकार के शिक्षा के रोजगारोन्मुखी पाठ्यक्रमों का निर्धारण, समन्वयन एवं नियंत्रण करती हैं। शिक्षा को रोजगारपरक बनाने में दूरस्थ शिक्षा भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। ऐसे लोग, जो परम्परागत शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश लेकर शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं, वे दूरस्थ शिक्षा पद्धति के द्वारा अपनी शैक्षिक योग्यता बढ़ाकर रोजगार के नए अवसर प्राप्त कर सकते हैं।
यदि रोजगार के सम्बंध में शिक्षा को देखा जाए तो नई पीढ़ी के युवाओं ने अपनी बुद्धि एवं क्षमता का लोहा विश्वभर में मनवाया है। भारत में डिग्री प्राप्त अधिकांश छात्र अमेरिका, चीन, ऑस्ट्रेलिया एवं ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में कार्यरत हैं। स्वास्थ्य एवं औषधि के क्षेत्र में भी आधुनिक भारतीय युवाओं ने क्रांति का सूत्रपात किया है, किंतु अधिकतर मामलों में शिक्षा में रोजगारपरक एवं उच्च शिक्षा की स्थिति अभी भी पिछड़ी अवस्था में है। इस बात का इससे अच्छा प्रमाण और भला क्या हो सकता है कि वर्ष 1967 में रुड़की विश्वविद्यालय में पूर्व प्रशिक्षित अभियंताओं को उपाधि प्रदान करने के लिए आयोजित किए गए दीक्षांत समारोह में जब पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी भाषण देने के लिए उठीं तो बहुत से इंजीनियरिंग छात्रों ने खड़े होकर एक स्वर में कहा था – ‘हमें भाषण नहीं, रोजगार चाहिए।’
भारत में प्रायः उच्च शिक्षा को ही रोजगारपरक शिक्षा का जरिया बनाया गया है। यद्यपि माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्तर पर भी व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को शामिल किया गया है, किंतु इस कार्य में अभी तक पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। कम पढ़े-लिखे लोगों के सामने हमेशा रोजगार की समस्या बनी रहती है। ऐसे लोगों को स्वरोजगार आधारित शिक्षा देकर रोजगार से जोड़ने में सफलता प्राप्त की जा सकती है। इस तरह, हम कह सकते हैं कि रोजगारपरक शिक्षा का भारत के आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति और प्रजातांत्रिक विचारधारा को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है, बशर्ते इसके प्रति लोगों को जागरूक बनाया जाए।
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