वन संपदा

वन संपदा
Image : University of Oxford

प्रस्तावना :

सभ्यता के आरंभ काल से ही मानव और प्रकृति का गहरा संबंध रहा है। प्रकृति ने अनेक रूपों में मानव को अपनी ओर आकर्षित किया है। सत्य यह है कि प्रकृति मानव की सच्ची सहचरी है। उसने मानव के जीवन को सुखी-समृद्ध बनाया है। छायादार वृक्षों ने उसे सघन छाया दी है, पुष्पों ने उसे सुगंधित द्रव्य प्रदान किए हैं एवं फलों ने उसकी भूख मिटाई है। पर्वतों-झरनों से निकलने वाली नदियों ने उनकी प्यास को शांत किया है। वसंत और पतझड़ ने उसे सुख-समृद्धि और दुख की अनुभूति करना सिखाया है। इस प्रकार प्रकृति से मनुष्य का घनिष्ठ संबंध है।

 

वनों का घटाव एवं उसका प्रभाव :

बढ़ती सभ्यता के इस दौर में भारत की जनसंख्या में तीव्र वृद्धि होना निश्चय ही चिंता का विषय है। हमारी सभ्यता तो अवश्य विकसित हुई है, पर हमारे वन सिकुड़ते चले गए। राक्षसी जनसंख्या ने हरियाली की मात्रा को घटा दिया है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई ने वनों को छोटा कर दिया है। इसी कारण श्री सुंदरलाल बहुगुणा को चिपको आंदोलन चलाना पड़ा, जिससे वृक्षों की कटाई रोकी जा सके।

 

वनों के सिकुड़ने से प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गई। वस्तुतः वृक्ष प्रकृति के आंगन के सुंदरतम अंग हैं। इसके बिना प्रकृति का सौंदर्य नष्ट हो जाता है। सब जानते हुए भी आज सघन वनों को काटकर नगर बसाए जा रहे हैं। अब वातावरण में वह ताजगी नहीं रह गई है जो कुछ समय पूर्व थी।

 

वनों को बचाने के प्रयास :

वृक्षों की कटाई से अब बाढ़ भी अधिक आती है। प्रतिवर्ष बाढ़ से काफी जानमाल की क्षति होती है। वृक्षों की कटाई का यह परिणाम है कि अब वर्षा होती ही नहीं है। समय पर वर्षा न होने से कृषि कार्य ठप्प पड़ जाता है। 

 

वृक्षों की कटाई को मद्देनजर रखकर ही श्रीमती इंदिरा गांधी ने बीस सूत्रीय कार्यक्रम के एक अंग के रूप में वृक्षारोपण स्वीकार किया था। वैसे वृक्षारोपण भारत के लिए कोई नई चीज नहीं है। भारतीय संस्कृति में तो महान उपकारी वृक्ष को पुत्रवत् स्वीकारा गया है। संस्कृत के वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य तक में प्रकृति के मनोरम चित्र बिखरे हुए दिखाई पड़ते हैं। नदी, पर्वत, वृक्ष, सूर्य और चंद्र की पूजा का विधान हमारे प्रकृति प्रेम का ही परिचायक है।

 

प्राचीन भारतीय साहित्य में वृक्षारोपण के महत्त्व को दर्शाने वाले अनेक उदाहरण विद्यमान हैं। वृक्ष परोपकार की साक्षात प्रतिमा हैं। उनकी इस महानता को देखकर ही उसे परोपकार का उपमान स्वीकार किया गया है। महाकवि पंत ने कहा है कि-

 

‘छोड़ द्रुमों की मृदुछाया,

तोड़ प्रकृति से भी माया।

बाले तेरे बाल जात में,

कैसे उलझा दूं लोचन ।।’

 

‘मत्स्य पुराण’ में तो यहाँ तक कहा गया है कि एक वृक्ष की रक्षा दस पुत्रों की प्राप्ति के समान है। पुराणकार ने लिखा है –

 

“दशकूप समवायी दशवापी समोहृदः ।

दशद्दयः समः पुत्रो दशपुत्रः समोद्रुमः ।।”

 

कुमारसम्भवम् तथा अभिज्ञानशाकुन्तलम् में क्रमशः पार्वती और शकुंतला वृक्षारोपण करती हुई देखी जाती हैं।

 

चिकित्सा के क्षेत्र में तो वृक्षों का अभूतपूर्व योगदान है। पीपल, वट, जामुन, आंवला, नीबू आदि के गुण तो एक अनपढ़ भी भलीभांति जानता है। वस्तुतः वृक्षों की महिमा अवर्णनीय है। प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए एवं पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि हम वृक्षारोपण के महत्त्व को समझें।

 

वृक्षों को काटकर फैक्ट्रियाँ लगा दी गईं। इसका परिणाम यह हुआ कि जलवायु में नीरसता एवं शुष्कता आ गई। समय पर वर्षा का होना बंद हो गया। वृक्षों से मिलने वाली ऑक्सीजन की मात्रा कम हो गई। वातावरण अशुद्धि का मानव के स्वास्थ्य पर दूषित प्रभाव पड़ा। अब भारत सरकार ने अन्वेषकों के आधार पर इस तथ्य का अनुभव करते हुए 1950 से वन महोत्सव की योजना का कार्यक्रम शुरू किया। 

 

उपसंहार :

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वृक्षों के बिना जीवन संभव नहीं है। वृक्षों से अनेक लाभ के साथ हमें नैतिक शिक्षा भी मिलती है। मनुष्य के निराशा से भरे जीवन में आशा और धैर्य की शिक्षा विद्वानों ने वृक्षों से सीखना बताया है। अतः यह सिद्ध सत्य है कि वृक्ष हमारे नैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक समृद्धि के मूल हैं।

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