स्वावलंबन
प्रस्तावना :
अवलंब लेकर जी रहा जो।
है मार्ग उसकी उन्नति का कहाँ पर।
है सुखी जीवन? उसी का संसार में।
स्वावलंबित होकर जीता यहाँ जो।
– अज्ञात
कहा जाता है मन के हारे, हार है, मन के जीते जीत। जिसने मन से यह स्वीकार कर लिया कि वह दूसरों के सहारे के बिना अपना जीवन जी नहीं पाएगा भला वह इस संसार में विजय प्राप्ति की कामना भी कैसे कर सकता है। एक व्यक्ति आजीवन बैसाखी लेकर चलता रहता है, परंतु जैसे ही उसकी बैसाखी छीन ली जाती है उसकी गति रुक जाती है और वह असमर्थ होकर बैठ जाता है। उसकी समस्त गतियाँ समाप्त हो जाती हैं। वहीं एक व्यक्ति दोनों पांवों से लाचार होकर भी स्वयं खड़ा होने का प्रयत्न करता है। अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति ने बल पर अपने हाथ पैरों का सहारा लेकर चलता है और एक समय ऐसा आता है जब वह अपने ही बलबूते पर दूर-दूर तक का सफर तय कर लेता है। ठीक यही स्थिति स्वावलंबी और परावलंबी मनुष्य की है। जो दूसरों के बल पर कुछ करने के अभ्यासी हैं वे कभी उन्नति के स्वर्ण शिखर की यात्रा पूर्ण नहीं कर सकते। आखिर उस लता से क्या आशा की जाती है जिसका अवलंब के बिना अस्तित्व ही नहीं है। मनुष्य का जीवन सत्य, अन्याय और श्रेष्ठता की स्थापना के लिए है जो पराश्रित है वह क्या कभी ऐसा कर सकता है। मनुष्य की उन्नति के लिए एक मात्र स्वर्णिम दस शास्त्रोपदेश (टेन कमान्डमेंट्स-बाइबल) ही नहीं है। इसके अलावा अन्य भी शास्त्रोपदेश हैं। अनेक आख्यान हैं। उनमें एक उपदेश स्वावलंबन का भी है। केवल अपने सुंदर हाथों की शक्ति पर विश्वास रखकर जो लोग अपनी बुद्धि से उन्नति का मार्ग निर्धारित नहीं करते उनके लिए न तो श्रेष्ठता है और न ही उन्नति है; बल्कि ये जीवन मार्ग के प्रथम मोड़ पर ही भटक जाएँ तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। स्वावलंबन के दो पहलू हैं। पहला, अपना काम स्वयं करना और आत्मनिश्चय। गीता में भगवान कृष्ण ने भी स्वावलंबन का पाठ पढ़ाते हुए अर्जुन से कहा है – ‘दूसरों से सीख न लेने वाला और आत्मनिश्चय से हीन मनुष्य अवश्य ही नष्ट हो जाता है।’
स्वावलंबन की महत्त्व :
स्वावलंबी मनुष्यों ने ही इस संसार को इतना सुंदर और रचनात्मक बनाया है। आज मनुष्य विकास के लिए जिस नवीन पथ पर अपनी यात्रा तय कर रहा है, वह पथ भी स्वावलंबी मनुष्यों द्वारा ही निर्मित किया गया है। संसार के महापुरुषों की जीवनगाथाओं को पढ़ें तो पता चलता है कि जिन गुणों के कारण उन्होंने संसार को प्रगति के उच्चतम शिखर पर लाकर खड़ा कर दिया वह स्वावलंबन ही है। महान गायक, महान व्यापारी, महान क्रांतिकारी, महान नेता सबने अपना रास्ता स्वयं तय किया है। किसी की पीठ पर बैठकर उन्होंने अपनी मंजिल कभी नहीं पाई। एक महान साम्राज्य की स्थापना करने वाले चंद्रगुप्त मौर्य ने अपनी भुजाओं पर आस्था रखकर ही मौर्य साम्राज्य की नींव डाली थी। मुगल वंश की स्थापना करने वाले बाबर को भी अपनी विजयी भुजाओं पर ही यकीन था। महान चिंतक, नेता, व्यापारी और वैज्ञानिक बेंजामिन फ्रैंकलिन के माता-पिता इतने गरीब थे कि उन्हें समुचित शिक्षा तक नहीं दिला पाए थे, परंतु स्वावलंबन का पाठ पढ़कर ही उन्होंने अपना सर्वोत्तम लक्ष्य पाया था। माइकेल फैराडे प्रारंभ में पुस्तकों की जिल्दसाजी का कार्य करते थे, परंतु स्वावलंबन का पाठ पढ़कर उन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में चमत्कार करके दिखा दिया। ईश्वर चंद्र विद्यासागर एक अत्यंत गरीब ब्राह्मण की संतान थे, सड़क की बत्तियों में पढ़ते थे, परंतु उन्होंने जो महान यश अर्जित किया उसका रहस्य भी स्वावलंबन ही है। नेपोलियन, शेरशाह सूरी, न्यूटन, जेम्सबाट, नरेंद्र मोदी जैसे अनगिनत नाम ऐसे हैं, जिन्होंने स्वावलंबन के बल पर मानवता के लिए कार्य किया और अक्षय यश के भागी बने। यह एक अकाट्य सत्य है कि जो मनुष्य अपनी शक्ति के बल पर अपनी मंजिल की ओर अग्रसर नहीं होता उसकी पराजय पहले ही निश्चित हो जाती है। अंग्रेजी के एक विचारक ने कहा है- ‘द सुप्रिम फाल ऑफ फाल्स इज दिस, द फर्स्ट डाउट ऑफ आन सेल्फ’ अर्थात पतन से भी महान पतन यह है कि किसी को सबसे पहले अपने आप पर विश्वास न हो। अपने पर विश्वास रखने वाला व्यक्ति सदैव सफल होता है, दूसरों पर विश्वास करने वाला व्यक्ति सदैव धोखा खाता है। नीतिग्रंथों का यह वचन निश्चित ही सत्य है। हमें यह सदैव याद रखना चाहिए कि ‘संसार के अधिकतर विश्वास व्यर्थ और धोखा से भरे हुए हैं। इसलिए सर्वोत्तम यही है कि हम स्वयं पर विश्वास करें।’
राष्ट्र और स्वावलंबन :
यदि हम अपने राष्ट्र का भला चाहते हैं तो हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम स्वावलंबी बनें और अपने देश को स्वावलंबी बनाएँ। जो राष्ट्र परावलंबी होते हैं उनकी स्थिति धोबी के कुत्ते जैसी होती है, न घर का न घाट का। परावलंबी राष्ट्रों की दूसरों पर निर्भर रहते-रहते ऐसी आदत हो जाती है कि वह स्वावलंबी बनने की कल्पना तक नहीं करते। हर मामले में वे दाता राष्ट्र के सामने हाथ बांधकर खड़े हो जाते हैं। ऐसे राष्ट्र दाता राष्ट्रों की झिड़कियाँ भी सुनते हैं और उनकी हर उचित-अनुचित बातों के मानने के लिए विवश भी होते हैं। वे इतने विवश होते हैं कि वे चाहें या न चाहें, परंतु दाता राष्ट्र उन्हें दूसरों से युद्ध करने के मामले में भी घसीट लेते हैं और वे कुछ नहीं कर पाते। विभिन्न देशों के समूह में उनका उपहास उड़ाया जाता है और वे किसी कठपुतली की तरह नाचने के लिए विवश होते हैं। यदि किसी राष्ट्र को महान राष्ट्र की तरह जीना है तो उस राष्ट्र को स्वावलंबी होना चाहिए। किसी भी अवस्था में दूसरों के सामने अपना भिक्षापात्र फैलाना बंद करना होगा। बल्कि यदि कोई सहायता भी करना चाहे तो उसे ठुकरा देना पड़ेगा। तभी वह राष्ट्र अपनी शक्ति एवं प्रतिभा का विकास कर पाएगा और विकास का उपभोग राष्ट्र की उन्नति के लिए कर सकेगा।
उपसंहार :
स्वावलंबित जीवन ही वास्तव में जीवन है; परावलंबी जीवन मृत्यु है। स्वावलंबन आत्मा का अमृत है; परावलंबन गागर का सागर। परावलंबी ही पापी है और स्वावलंबी पुण्यवान। भगवान ने हाथ, पाँव, नेत्र आदि परावलंबी को भी दिया है और स्वावलंबी को भी, किंतु वह लूले लंगड़े की भांति दूसरों के आश्रय पर जीवन जीकर भगवान की कृपा का मजाक उड़ाता है। ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं पशु है, मृतक पशु के समान है। जिस देश में ऐसे लोग रहते हैं वह देश कैसे उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है। हमें राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में नित्य ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि –
यह पापपूर्ण परावलंबन पूर्ण होकर दूर हो।
फिर स्वावलंबन का हमें प्रिय पुण्य पाठ पढ़ाइए ।।
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