स्वास्थ्य
प्रस्तावना :
कहा जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। यह उक्ति निश्चित ही अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्योंकि विचार और शरीर दोनों यदि स्वस्थ नहीं हैं तो जीवन को अत्यंत महत्ता की ओर ले जाने वाला कर्म भी नहीं किया जा सकता। स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन की सबसे बड़ी पहचान यह है कि ऐसा शरीर अपने कार्य में निरंतर तत्पर रहने के बाद भी न तो कभी उकताता है और न ही कभी अपने कार्य की गुणवत्ता को न्यून होने देता है। बल्कि सत्य तो यह है कि ऐसा शरीर अपने कार्य करने के बावजूद प्रसन्नचित्त रहता है और पूरे मन से दूसरों की सहायता भी करता है। अतः स्वास्थ्य की परिभाषा यह है कि ‘जो शरीर अपनी पूरी निष्ठा से अपना कार्य करते हुए प्रसन्नचित्त रह सके और दूसरों के कार्य में भी अपना योगदान दे सके उस शरीर को ही हम कहेंगे ‘स्वस्थ’ और उसके इस श्रेष्ठतम सामर्थ्य को ही कहा जाएगा स्वास्थ्य। भरे बोरे की तरह मोटा हो जाना और हल्का-सा बोझ पड़ते ही कांपने लग जाना अच्छे स्वास्थ्य का लक्षण नहीं है। न ही ऐसी दुर्बलता ही स्वास्थ्य की श्रेणी का माना जा सकता है जो तनिक भी तेज हवा चलते ही पीपल के सूखे पत्ते की तरह उड़कर दूर चला जाए और चार कदम चलते ही हाँ फने-कांपने लगे। घंटे भर पढ़े तो सिर में चक्कर आने लगे और दो-चार किलो जो सामान उठाना पड़े तो कुली के बिना कार्य न चले।
स्वास्थ्य की महत्ता :
स्वास्थ्य मनुष्य की प्रथम और सबसे अनमोल सम्पत्ति है। इमर्सन ने कहा है – ‘अच्छा स्वास्थ्य संसार के सभी वरदानों में सर्वोत्तम वरदान है।’ यह अमीरों के लिए वरदान है तो गरीबों के लिए जीवन की सबसे बड़ी नियामत । अच्छे स्वास्थ्य को किसी भी मूल्य पर खरीदा नहीं जा सकता। संसार का कोई भी सुख अच्छे स्वास्थ्य के बिना पाया नहीं जा सकता। अच्छे स्वास्थ्य के बिना जीवन में किसी लक्ष्य को पाना सम्भव ही नहीं है। जिसकी मांसपेशियाँपत्थर के समान दृढ़ हों, जिसकी भुजाएँ लौह-खंडों की भांति हों। जिसकी नस-नस में चपला की लहर दौड़ती हो। जिसके नेत्रों में उदारता और स्नेह का सागर उमड़ता हो उसे ही हम स्वास्थ्य कहेंगे। वह चाहे तो अपनी भुजाओं से पर्वत को झुका दे। वह अगर इच्छा करे तो सागर की उन्मत्त उर्मियों को कम्पित कर दे। एक स्वस्थ व्यक्ति तूफान की गति को भी मोड़ सकता है, परंतु जो स्वयं बीमार है वह तो अपने ही शरीर पर भिनकती मक्खियों को भी उड़ाने का साहस नहीं दिखा सकता। स्वास्थ्य की महत्ता मात्र अपने लिए ही नहीं होती, एक स्वस्थ व्यक्ति ही समाज के लिए उपयोगी हो सकता है। स्वस्थ व्यक्ति की भुजाएँ वट वृक्ष की भांति निराश्रितों को आश्रय देती हैं। उसके विचार सघन घन की तरह फैलकर समाज के लिए अमिय-सिंचन करते हैं, किंतु जिसके शरीर पर अस्वास्थ्य की डरावनी छाया मंडराने लगती है वह समाज तो क्या अपने लिए भी कुछ श्रेष्ठ नहीं कर सकता बल्कि उसका जीवन तो उस पतले धागे पर टंगा होता है जिसे मृत्यु का देवता जब चाहे खंडित कर दे। एक स्वस्थ व्यक्ति के नेत्रों में नित नवीन स्वप्नों की उत्पत्ति होती है। उसके अंग-अंग में तरुणाई जम्हाई-सी लेती हुई प्रतीत होती है। विटामिन की गोलियों से स्वास्थ्य उधार माँगने वाले गालों पर रूज लगाकर लाली का भ्रम पाल लेते हैं। ऐसे लोग दूसरों को धोखा दें तो दें, परंतु वे स्वयं को धोखा नहीं दे सकते। स्वास्थ्य की लाली तो खिलते गुलाब की लाली है। उसके चेहरे की चमक तो सूरज की कुंवारी किरणों की चमक होती है। स्वस्थ मनुष्य के लिए यह जीवन आनंद भूमि बन जाता है। वह अपने कर्मपथ पर चलते हुए अपने जीवन के आनंद को भोगता है जबकि अस्वस्थ के लिए जीवन भार बन जाता है। छप्पन भोग से भरी थाली भी उसे कारतूस की गोली लगती है। स्वस्थ व्यक्ति जंगल में भी मंगल कर देता है जबकि अस्वस्थ मनुष्य के लिए कश्मीर की सुनहरी घाटी भी मृत्यु की भयावनी तलहटी लगती है। स्वस्थ मनुष्य जीवन के सरगम पर गुनगुनाता रहता है जबकि अस्वस्थ मनुष्य को सुंदर सुर भी कटु लगता है। स्वस्थ मनुष्य दुख में भी ठहाके लगाने का सामर्थ्य रखता है जबकि, अस्वस्थ मनुष्य को मन को मगन करने वाली बातें और मोहक हंसी भी शूल जैसी लगती है। स्वास्थ्य की महत्ता को प्राचीन कहावतों में मात्र एक वाक्य में ही पूर्ण कर दिया गया है – ‘धन गया तो कुछ नहीं गया, मान गया तो कुछ चला गया परंतु स्वास्थ्य चला गया तो सबकुछ चला गया।’
उपसंहार :
स्वास्थ्य ही जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि है। यदि हम पृथ्वी का सारा सुख भोगना चाहते हैं, यदि हम अपने राष्ट्र की उन्नति के लिए कुछ प्रयत्न करना चाहते हैं। यदि हम विश्व के कल्याण में अपनी सहभागिता का निर्वाह करना चाहते हैं तो यह अत्यंत आवश्यक है कि हम स्वास्थ्य के नियमों का पूरी दृढ़ता से पालन करें। महर्षि चरक ने लिखा है – ‘उचित आहार, पूर्ण निद्रा और ब्रह्मचर्य।’ प्रख्यात अमेरिकी विचारक फ्रैंकलिन की भी एक अत्यंत प्रसिद्ध उक्ति है- ‘सवेरे सोना और सवेरे जागना मनुष्य को स्वस्थ, सम्पन्न और बुद्धिमान बनाता है। स्वस्थ रहने के लिए इन दोनों मनीषियों का कथन एक दिव्य मंत्र की भांति है। साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि स्वस्थ शरीर के लिए अति का वर्जन ही करना चाहिए। अर्थात अति भोजन, अति जागरण, अति शयन अति विलास शरीर से स्वास्थ्य को नष्ट कर सकता है।’ महात्मा गांधी ने लिखा है- ‘जो जीभ के स्वाद में पड़ा उसका स्वास्थ नष्ट हुआ अर्थात भोजन वह करें जो शरीर के लिए गुणकारी हो न कि जीभ के लिए सुस्वादु हो।’ वैडिल फिलिप्स का कथन भी स्वस्थ शरीर के लिए एक निर्देश है- ‘स्वास्थ्य परिश्रम में वास करता है। उस तक पहुँचने के लिए परिश्रम के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। वस्तुतः स्वस्थ मनुष्य ही सृष्टि का सर्वोत्तम श्रृंगार है, अतः परिश्रम करते हुए स्वस्थ रहने का प्रयत्न सदैव करना चाहिए।’
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