शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य
प्रस्तावना :
मानव समाज के उदय एवं विकास के साथ-साथ ही शिक्षा देने का कार्य भी प्रारम्भ हुआ। निश्चित रूप से प्राचीन काल में शिक्षा का मौलिक अर्थ वह नहीं था जिस अर्थ में आज हम उसे लेते हैं। शिक्षा के मौलिक उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए विष्णु पुराण में कहा गया है –
तत्कर्म यन्न बंधाय सा विद्या या विमुक्तये ।
आयासायापरं कर्म विघडनया शिल्पनैपुणम् ।।
अर्थात् – कर्म वह है कि जिससे बंधन की उत्पत्ति न हो, विद्या वह है जो मुक्त कर दे। कर्म की श्रेष्ठता तभी है जब विद्या कला में निपुण कर दे।
इस कथन का भाव यह है कि शिक्षा उस विद्या की दी जानी चाहिए जो हमें विमुक्त कर दे और हम अपने सुख-दुख के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जीवन और समाज को सही दृष्टि से देखने में सफल हो जाएं।
शिक्षा की वर्तमान प्रणाली:
आज हम जिस समाज में रह रहे हैं वहाँ शिक्षा का अर्थ वह नहीं है जो पहले कहा गया है। आज शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है किसी भी प्रकार शिक्षा प्राप्त कर हम उस स्थिति में पहुँच सकें जहाँ वर्तमान प्रणाली के तहत हमें किसी प्रकार की सेवा का अवसर प्राप्त हो सके। आज हम जिस समाज में जी रहे हैं वहाँ पर बचपन से ही बच्चों के कंधों पर अभिभावकों की अपनी इच्छाओं का बोझ है। अभिभावक जो कल्पना करते हैं वही अपने बच्चों को बना देना चाहते हैं। एक बच्चा किस क्षेत्र में अपने को स्थापित कर सुखी होना चाहता है; इससे अभिभावक का कोई मतलब नहीं होता। शिक्षक एवं अभिभावक यह जानने का प्रयत्न तक नहीं करते कि उनका बच्चा या छात्र स्वयं क्या चाहता है। इसका परिणाम यह होता है कि अनिच्छा से, मात्र अभिभावक के कहने पर डॉक्टर या इंजीनियर बनने की चाहत छात्र को तोड़ कर रख देती है। कई बार तो निराशा में ये बच्चे या युवा अपने जीवन को ही समाप्त कर देते हैं। निश्चित रूप से यह शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य नहीं है।
शिक्षा के संदर्भ में सामाजिक मान्यताएँ :
हम बचपन से ही एक उक्ति लगातार कई बार सुनते आ रहे हैं –
पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब। खेलोगे, कूदोगे होगे खराब ।।
आज भी कई बड़े-बूढ़े इस जुमले का इस्तेमाल अपने अभिभाव्यों को समझाने के लिए करते हैं। सच तो यह है कि समाज की एक अत्यंत रुढ़िवादी किस्म की मान्यता है कि जो बच्चे खेलने-कूदने नाचने-गाने का शौक रखते हैं वे निश्चित रूप से अपने जीवन में असफल इंसान ही होते हैं। वे छात्र जो किताबी कीड़े बन चुके हैं जिनके मार्कसीट में 90 प्रतिशत अंक होते हैं उनके मुकाबले उन बच्चों को हेय समझा जाता है जिनके पास खेल-कूद की दर्जनों ट्रॉफियाँ हैं, जिनके संगीत का स्वर सुनकर एक बार ठिठक जाने का मन करता है। औपचारिक शिक्षा में प्राप्त किया गया एक गोल्ड मेडल उनके तमाम गुणों पर भारी पड़ता है।
शिक्षा में सरकार की भूमिका:
शिक्षा में सरकार की महत्त्वपूर्ण भूमिका से कोई भी इंकार नहीं कर सकता। सरकार ही शिक्षा के लिए नीति का गठन करती है और उसे लागू करती है परंतु वर्तमान शिक्षा नीति में एक कमजोर पक्ष स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। वह यह है कि सरकारों की शिक्षा नीति छात्रों को शिक्षित बनाने की नहीं अपितु साक्षर बनाने की है। सत्य तो यह है कि आज पढ़े-लिखे मजदूर तैयार किए जा रहे हैं जिन्हें न तो शिक्षा के उद्देश्य से मतलब है और न ही शिक्षा के लक्ष्य से। वस्तुतः हम एक ऐसी शिक्षा पद्धति को अपनाए हुए हैं जहाँ मानवीय मूल्यों के दांव पर इंसान को मशीन बनाए जाने का क्रम अनवरत जारी है। विज्ञान और तकनीक के बढ़ते कदम ने हमें भले ही मंगल ग्रह तक पहुँचा दिया है, मगर हमारे अंदर के संवेदनशील मनुष्य को मार डाला है।
कैसी होनी चाहिए शिक्षा :
वास्तविक शिक्षा वही है जो समाज से सामंतवादी और रूढ़िवादी विचारों का समापन कर जाति, धर्म, लिंग आदि की दीवारों को ध्वस्त कर समाज का नव-निर्माण करे। जो कबीर की तरह उद्घोष करके कह सके कि- ‘तू कहता है कागद लेखी मैं कहता हूं आंखन की देखी।’ वास्तविक शिक्षा आंखन देखी हमारे प्रयोगों में विहित है। आज हमारे देश में ऐसे अनेक इंजीनियर हैं जो अपनी घड़ी तक ठीक नहीं कर सकते, जो अपने घर में फ्यूज बदलने तक के लिए मैकेनिक बुलाते हैं। यह शिक्षा नहीं शिक्षा का मजाक मात्र है।
उपसंहार :
शिक्षा मानव जीवन के लिए अमृत से भी ज्यादा मूल्यवान है। जिस प्रकार अमृत भी कीचड़ में गिर कर नष्ट हो जाता है उसी प्रकार शिक्षा भी अपने वास्तविक उद्देश्य से हटकर निरर्थक हो जाती है। हमें यह प्रयास करना होगा कि शिक्षा अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर सके। शिक्षा प्राप्त कर हम अपने कार्य में कुशल तो बनें ही, साथ ही हमारे अंदर महान मानवीय गुणों का विकास भी हो। यही शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है।
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