सत्यवादिता
प्रस्तावना :
संसार का वह कौन-सा शास्त्र, कौन-सी नीति, कौन-सा धर्म है जो यह कहता है कि सत्य में शक्ति नहीं है। सत्य ही सृष्टि में परम शक्तिवान, परम सत्तावान् एवं समस्त नीतियों से श्रेष्ठ है। यह कितना सरल है। सरल ही क्यों सीधा-सादा भी। जो कुछ भी अपनी आंखों से देखा कह दिया। ना कोई लाग, लपेट न बात गढ़ने का प्रयत्न। सत्यवादिता के लिए केवल निष्कपट मन की आवश्यकता होती है और कुछ भी नहीं, जबकि झूठ के लिए बहुत से प्रयत्न करते हैं। लाख उपाय खोजने पड़ते हैं। एक झूठ के लिए हजार झूठ बोलने पड़ते हैं। झूठ की एक लंबी श्रृंखला मन में बैठानी पड़ती है और अगर कहीं तारतम्य नहीं बैठा। किसी कारण झूठ का पोल खुला तो अपमानित भी होना पड़ता है। कई बार तो बस एक झूठ के कारण बनते-बनते काम बिगड़ जाता है, ऊपर से अविश्वास का आघात भी सहना पड़ता है। झूठे व्यक्ति पर कोई भी, कभी भी विश्वास नहीं करता, जबकि सच बोलने वाले पर सभी दृढ़ता से विश्वास करते हैं। उसका एक-एक कथन समाज बड़ी विनम्रता के साथ स्वीकार करता है। सत्यवादिता के महान संकल्प से विभूषित मनुष्य युगों तक सम्मान से विभूषित होता है। झूठ बोलने वाले के प्रति लोगों का विश्वास समाप्त हो जाता है। हर जगह वह उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। उसकी उन्नति के सभी द्वार स्वतः बंद हो जाते हैं। कभी-कभी तो झूठ के कारण ही उसे अपने जीवन से भी हाथ धोना पड़ता है। हम सभी ने वह कहानी तो सुनी ही है जिसमें एक लड़का झूठ में भेड़िया आया, भेड़िया आया कहकर सबको चिढ़ाया करता था और एक दिन सच में भेड़िया आकर उसे खा गया और कोई बचाने नहीं आया। जबकि सत्यवादिता कभी-कभी बड़े-से-बड़े संकट को भी समाप्त कर देती है। इसलिए सत्य को दृष्टि का प्रतिबिम्ब, ज्ञान की प्रतिलिपि और आत्मा की वाणी कहा जाता है।
सत्य की महत्त्व :
संसार में जितने भी महान व्यक्तियों ने जन्म लिया है उन सभी के लिए सत्यवादिता उपासना की तरह थी। ‘चंद्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार…’ का उद्घोष करने वाले महापुरुष राजा हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा से भला कौन अपरिचित होगा। यद्यपि सत्यनिष्ठा के परिणाम स्वरूप उन्हें जीवन में अत्यंत भीषण कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, परंतु सत्यनिष्ठा के कारण ही उनका यश सूर्य की रश्मियों और चंद्र की किरणों से अधिक प्रकाशपूर्ण है। हजारों वर्षों बाद भी वे मानव समाज के लिए एक आलोक पुंज बने हुए हैं। राजा दशरथ ने सत्य के लिए ही अपना प्राण् गोत्सर्ग तक कर दिया था। महात्मा गांधी को महात्मा की उपाधि सत्यपूर्ण व्यवहार के लिए ही मिली थी। उनका कथन है- ‘सत्य एक विशाल वृक्ष है। ज्यों-ज्यों उसकी सेवा की जाती है। त्यों-त्यों उसमें मधुर फल आने लगते हैं। उनका अंत नहीं होता। सत्य तो यह है कि सत्यवादिता की महत्त्व अनंत है और इसके अमित फल होते हैं।’
सत्यवादी प्रवृत्ति का विकास :
सत्य झूठी प्रशंसा के लोभ से वंचित करता है जबकि प्रशंसा मीठी होती है। इसलिए अधिकांश लोग बचपन में अपनी गलतियों को छुपाने के लिए झूठ बोलते हैं। धीरे-धीरे झूठ उनकी आदत बन जाती है। इसलिए सत्य बोलने का अभ्यास बचपन से ही प्रारंभ होना चाहिए। कभी-कभी झूठ बोलने से उसके कुछ क्षणिक लाभ हो जाते हैं। जैसे, बच्चे झूठ बोलकर माता-पिता से अधिक पैसे ले लेते हैं। पढ़ाई करने का बहाना करके नाटक-सिनेमा चले जाते हैं, किंतु यह क्षणिक लाभ उनके जीवन के विकास का मार्ग अवरुद्ध कर देता है। उनके चरित्र में छिद्र हो जाता है और जिस चरित्र में झूठ का छिद्र बन जाता है वह कभी महान नहीं हो सकता। अतः माता-पिता को बचपन से ही सत्य को पुरस्कृत करने और झूठ को दंडित करने का प्रयत्न करना चाहिए। जिससे बालक के चरित्र में सत्य का विकास हो।
सत्यवादिता के संदर्भ में विद्वानों का कथन :
सत्यवादिता की महिमा अपार है। संसार के लगभग सभी शास्त्र, सभी दर्शन और सभी विद्वानों ने सत्यवादिता की महिमा का मंडन किया है। बाइबल का कथन है- ‘यदि तुम सत्य जानते हो तो सत्य तुम्हें मुक्त कर देगा। सत्य महान और परम शक्तिशाली है।’ मुंडकोपनिषद् कहता है- ‘सत्यमेव जयते नानृत’ अर्थात सत्य की ही विजय होती है झूठ की नहीं तथा ‘नास्ति सत्यात् परो धर्मः’ अर्थात सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है। जॉन मैंसफील्ड का कथन है- ‘सत्य की नाव से ही हम मृत्युसागर को पार कर सकते हैं।’ विश्वविख्यात गणितज्ञ पाइथागोरस का कथन है- ‘सत्य ईश्वर की आत्मा है’। भारतीय संस्कृति में भी सत्य को ईश्वर से परिभाषित किया गया है- सच्चिदानंद, वायरन कहते हैं- टूथ इज आलवेज स्ट्रांग, स्ट्रांगर देन फिक्सन अर्थात सत्य सदा ही दृढ़, परिकल्पना से दृढ़तर होता है। यह भले ही रूखा प्रतीत हो किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि इसकी तनिक भी उपेक्षा की जाए। सत्य पर ही संसार के सभी ज्ञान-विज्ञान आधारित हैं। यह सम्पूर्ण समाज सत्य की धुरी पर ही कायम है। जिस समाज में केवल झूठ-ही-झूठ हो वह समाज कभी उन्नति नहीं कर सकता। ऐसा समाज क्या कभी ज्ञान-विज्ञान की कोई बात समझ पाएगा। सत्य के पथ में खाइयाँ मिल सकती हैं, परंतु सत्य के पथ से विचलित होने वाले के पथ में बस कांटे-ही-कांटे होते हैं। सत्य के विरुद्ध बोलने का अर्थ है ईश्वर के विरुद्ध बोलना। ईश्वर को दुखी करना। असत्यवादी लोग कभी ईश्वर के प्रिय नहीं होते बल्कि उसके दंड के भागी होते हैं। कबीर दास ने इसे बड़ी गंभीरता से कहा है –
साँच बरोबर तप नहीं, झूठ बरोबर पाप।
जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप।
तुलसीदास जी ने भी श्रीरामचरितमानस में कहा है – ‘नहिं असत्य सम पातक दूजा’ अर्थात- ‘असत्य के समान पाप का पुंज और कुछ नहीं है।’ एवांस का भी कथन है – ‘टूथ इज द ग्रविटेशन प्रिंसिपल ऑफ यूनिवर्स, बाई ट्वीट इट इज सपोर्टेड एँड इन स्विच इज इनटेरिस।’ अर्थात- सत्य ही सृष्टि का गुरुत्वाकर्षण-सिद्धांत है जिसके द्वारा यह स्थिर है और जिसके द्वारा यह चल रहा है।
उपसंहार :
मनुष्य को यदि प्रगति के पथ पर आगे बढ़ना है। समाज को श्रेष्ठता की ओर ले जाना है तो उसे सत्य को ही अंगीकार करना चाहिए। परंतु यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सत्य बोलने में पूर्णतः सावधानी होनी चाहिए। सत्य बोलने का अर्थ किसी को क्षति पहुँचाना अथवा किसी को पीड़ित करना नहीं होना चाहिए। काने को काना कहके पुकारना सत्य नहीं है। इसीलिए मनीषियों ने कहा है- ‘सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात। अप्रियम् सत्य न ब्रूयात।’ अर्थात सत्य बोलो प्रिय बोलो, अप्रिय सत्य मत बोलो।
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