सामाजिक रूढ़ियाँ और युवकों का दायित्व
प्रस्तावना :
मानव समाज ने जैसे ही अपना विकास प्रारंभ किया उसने अपने लिए एक निश्चित समाज का गठन कर लिया। उसका यह समाज अपने लिए कुछ निश्चित विधिक नियमों का गठन करता था जिसे आज हम परंपरा कहते हैं। आज जब हम मानव समाज के विकास के लाखों वर्षों का सफर तय कर चुके हैं तब भी प्रत्येक समाज में कुछ प्राचीन परंपराएँ शेष हैं जिन्हें आज की परिस्थितियाँ अपने पूर्वजों से ग्रहण करती हैं। बदलती सामाजिक परिस्थितियों के कारण इनमें कुछ परंपराएँ अनुपयोगी हो जाती हैं; रूढ़ि परंपराओं को इन्हीं अनुपयोगी हिस्से को कहते हैं। चूंकि परंपराएँ समाज का एक अंग मानी जाती हैं इसलिए रुढ़ियों को समाज का एक अनुपयोगी अथवा खराब अंग कहा जा सकता है और इन्हें प्रत्येक समाज को काटकर फेंक देना चाहिए। भारतीय समाज में बाल विवाह, दहेज प्रथा, जाति प्रथा, ऊंच-नीच, छुआ-छूत, लड़के-लड़की में अंतर, अंधविश्वास, आडम्बर, दिखावा आदि कुछ ऐसी रूढ़ियाँ हैं जो भारतीय समाज को आंतरिक रूप से खोखला कर रही हैं। मनौती मानना, बलि चढ़ाना, टोना-टोटका आदि समाज को सच्ची धार्मिक भावनाओं से दूर कर रहे हैं। बिल्ली द्वारा रास्ता काट जाना। छींक आना, दिशा शूल जैसी निरर्थक तथा अवैचारिक सोच समाज को निकम्मा बना रही है। इन रूढ़ियों से मुक्ति का दायित्व युवकों के कंधों पर है, क्योंकि युवक ही वास्तविक सामाजिक परिवर्तन करने में सक्षम हैं।
किस प्रकार दूर कर सकते हैं युवक इन रूढ़ियों को :
यह प्रश्न आवश्यक और काफी हद तक अनिवार्य भी कि युवक ही क्यों और कैसे इन रूढ़ियों को दूर कर सकते हैं। इसके पहले प्रश्न के उत्तर में यह अत्यंत स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि युवक ही इसलिए, क्योंकि युवकों द्वारा ही एक व्यापक सामाजिक परिवर्तन की आशा की जा सकती है। युवकों में उत्साह आशा और आत्मविश्वास होता है। वे नवीनता से प्रेम करते हैं और नवीनता के लिए संघर्ष कर सकते हैं, जबकि पुराने लोगों में अपनी पुरातन चीजों के प्रति लागव अधिक होता है। द्वितीय प्रश्न का उत्तर विस्तृत तौर पर दिया जा सकता है। युवक अपने सामने आनेवाली उन रूढ़ियों से जो समाज को अत्यंत विषाक्त और जटिल बना रही हैं उनसे समाज को आसानी से मुक्ति दिला सकते हैं। जैसे- आज दहेज का दानव समाज के सामने एक अत्यंत विषम समस्या है। धन के लालच में आज न जाने कितनी लालनाएँ दहेज की आग में जलकर खाक हो रही हैं और अनेक पिताओं को अपने कंधे पर बेटी की डोली की जगह अर्थी ढोनी पड़ रही है बल्कि दहेज के भय से ही अनेक कन्याएँ माता की कोख में ही मार दी जाती हैं। आश्चर्य तो तब होता है जब पढ़े-लिखे नवयुवक भी इस दहेज के दानव को और भी वीभत्स बनाने के लिए खुलेआम स्वीकृति देते हैं। इसके पीछे उनका तर्क यह होता है कि पढ़ाई-लिखाई में उनके मां-बाप ने लाखों खर्च किए हैं, इसलिए उन्हें दहेज लेने का अधिकार है। परंतु यह तर्क देते समय वे यह भूल जाते हैं कि बेटियों के माता-पिता ने अपनी बेटियों की पढ़ाई-लिखाई तथा उनके पालन-पोषण में उतना ही खर्च किया है। इससे भी बड़ी त्रासदी यह है कि दहेज की इस लपट के पीछे किसी सास-ननद नामक स्त्री का ही हाथ होता है। युवाओं को अपनी क्षमता से यह तस्वीर बदलनी होगी। उन्हें दहेज की आग में अकाल मृत्यु का ग्रास बनाने वाली युवतियों की रक्षा का भार उठाना होगा। उन्हें साहसपूर्वक यह कहना होगा कि वे दहेज के नाम पर न तो एक पैसा लेंगे और न ही अपने अभिभावक को यह पाप करने देंगे।
जातिप्रथा भी ऐसी ही एक रुढ़ि है जो हमारे समाज को अंदर-ही-अंदर खोखला कर रही है। हमारे राजनेता इस कुरीति को और भी बढ़ावा दे रहे हैं। जातिवाद हिंदू समाज में वैमनस्यता के बीज बो रहे हैं। आजकल तो उपजातियों को अपने स्वार्थ के लिए नेता लोग खूब बढ़ावा दे रहे हैं। इससे न सिर्फ समाज में वैमनस्यता बढ़ती जा रही है बल्कि मनुष्यता भी लगातार आहत हो रही है। आज हमें एक ऐसे समाज की आवश्यकता है जहाँ न कोई ब्राह्मण हो, न क्षत्रिय, न शूद्र, न कुर्मी हो, न धोबी हो और न ही बनिया। सिर्फ मनुष्य हो जो मनुष्यता के लिए जीए और मनुष्यता के लिए मरे। यह कार्य भी केवल युवकों द्वारा ही किया जा सकता है। युवक स्वयं को जातिगत व्यवस्था से दूर रखकर एक नये समाज के निर्माण में अपनी भूमिका का निर्वाह कर अपना दायित्व निभा सकते हैं। अंधविश्वास जैसी रूढ़ियाँ ही हमारे समाज को खोखला करने में अपनी भूमिका का निर्वाह अत्यंत प्रमुखता से करती हैं। हम अक्सर अखबारों में यह पढ़ते हैं कि किसी व्यक्ति ने पुत्र प्राप्ति या देवी-देवता को खुश करने के लिए किसी बच्चे की बलि चढ़ा दी। एक परिवार अंधविश्वास के चक्कर में बरबाद हो गया। समाज को ठगने वाले अनेक ठग साधु-संन्यासी का वेश बनाकर इसी अंधविश्वास के डर के कारण अनेक लोगों को अपने जाल में फंसाकर ठगते रहते हैं। कई बार तो ऐसा भी सुना जाता है कि कुछ लोग किसी जिन्न या प्रेतात्मा को खुश करने के लिए अपना घर-बार तक गिरवी रखकर कर्म-कांडों का आयोजन करते हैं। इन अंधविश्वासों से युवक वर्ग ही समाज को मुक्ति दिला सकता है। समाज को साफ-सुथरा रखने के लिए युवा वर्ग को ऐसे अंधविश्वासों के विरुद्ध अपनी आवाज उठानी चाहिए।
उपसंहार :
रूढ़ियों से ग्रस्त कोई भी समाज प्रगति नहीं कर सकता। आज हमारे समाज को ऐसे युवक-युवतियों की आवश्यकता है जो समाज की बेहतरी के लिए संघर्ष कर सकें। जो अपने पैरों पर खड़े होकर कुछ कर गुजरने का साहस रखते हों। जिन्हें विवाह जैसे पवित्र कार्य के लिए किसी दहेज, किसी लालच की आवश्यकता न हो। अपने जीवन में प्रगति के लिए किसी देवी-देवता की जरूरत न हो। जिनमें नैतिकता, ईमानदारी, सच्चाई और देश में मनुष्यता के प्रसार के लिए असीम ऊर्जा हो। जिनके कंधे इतने मजबूत हों कि पूरा समाज उनके सहारे एक नयी दिशा में चल पड़े।
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