राष्ट्रभाषा का महत्त्व
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
विविध कला शिक्षा अमिट ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देशन से वै करहू, भाषा माहिं प्रचार
– भारतेंदु हरिश्चंद्र ।
प्रस्तावना :
अपनी भाषा का गौरव मन को शीतल कर देने वाला होता है। यह अंतरवेदना को भी मिटा देने में सक्षम है। पराई भाषा उस कृत्रिम दूध की तरह है जो लगता तो दूध है, परंतु शरीर में विष के समान कार्य करता है। हमारा देश एक अत्यंत महान एवं विशाल देश है। इसमें अनेक राज्य हैं। विभिन्न राज्यों की अपनी भाषाएं हैं। बंगाल की बंगला, असम की असमिया, उड़ीसा की उड़िया आदि, किंतु जो भाषा सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने में समर्थ है वह है हिंदी। हिंदी प्रायोगिक रूप से अंग्रेजों के समय भी राष्ट्रभाषा थी, भले ही उसे अंग्रेजों ने राष्ट्रभाषा घोषित न किया हो। इसे राष्ट्रभाषा की मान्यता न मिली हो, परंतु तब भी यह सारे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधती थी। आजादी की लड़ाई के समय हमारे नेताओं से सबसे बड़ी गलती जो हुई वह यही थी कि जिस प्रकार हमने अंग्रेजी हुकूमत को सात समंदर पार भेजा उसी प्रकार उनकी भाषा को भी उनके साथ ही भेज देना चाहिए था। दासता की इस अमिट निशानी ने कभी भी न तो हमारे राष्ट्र का भला किया और न ही समाज का। संसार में आज जितने भी स्वाधीन राष्ट्र हैं सबकी अपनी भाषा है। जैसे रूस की रूसी, फ्रांस की फ्रांसीसी, जापान की जापानी, चीन की चीनी। इसलिए जब भारतवर्ष को आजादी मिली तो यह सौभाग्य हिंदी को ही प्राप्त हुआ।
पक्ष में तथ्य :
हिंदी ही राष्ट्रभाषा हो इसके पक्ष में अनेक तथ्य हैं। जिस तरह जनतांत्रिक राजनीतिक दृष्टि से बहुसंख्यक पक्ष का महत्व है उसी प्रकार जिस भाषा को बोलने वाले तथा समझने वाले सबसे अधिक लोग हैं उसका महत्व अन्य भाषाओं की तुलना में स्वतः ही बढ़ जाता है। भारत में हिंदी बोलने वालों की कुल संख्या 60 करोड़ से भी अधिक है। दूसरी बात यह है कि भारत में हिंदी बोलने एवं समझने वाले देश के एक कोने से दूसरे कोने तक हैं। देश के भी 60 प्रतिशत लोग हिंदी के माध्यम से ही विचार-विनिमय करते हैं। वाणिज्य-व्यापार, तीर्थाटन इत्यादि सभी कार्य हिंदी भाषा के माध्यम से चलाया जाता है। भारत के उत्तरी क्षेत्र का एक व्यक्ति जब भी तीर्थाटन करने धुर दक्षिण में स्थित रामेश्वरम जाता है तो उसे अंग्रेजी की शरण नहीं लेनी पड़ती। उसका सारा काम हिंदी माध्यम से चल जाता है। वहाँ के पंडे, पुजारी एवं दुकानदार तो अच्छी हिंदी आसानी से बोल एवं समझ लेते हैं। वहाँ के कुलीन भी आसानी से हिंदी समझ एवं बोल लेते हैं। किसी दूसरी भाषा के साथ यह सुविधा नहीं है। भारत से बाहर लंका, वेस्टइंडीज, बर्मा, ब्रिटिश गयाना, अफ्रीका, मॉरीशस आदि में भी हिंदी की सहायता से काम चल जाता है। अतः स्वाभाविक रूप में हिंदी को ही यह गरिमा प्राप्त करने का अधिकार है।
हिंदी के विकास में बाधाएं :
यह एक अत्यंत दुखद तथ्य है कि भारतीय संस्कृति, भारतीय भाषाओं का सबसे अधिक विनाश राजनेताओं के कारण हुआ है। अपने निहित स्वार्थों के लिए राज नेताओं ने हिंदी के विकास को अवरुद्ध किया। प्रांतीयता, जातीयता, साम्प्रदायिकता की राजनीति से सत्ता हासिल करने वाले नेताओं ने जान-बूझकर हिंदी को रोजगार की भाषा नहीं बनने दिया जिससे सामाजिक क्षति तो हुई ही राष्ट्रीय क्षति भी हुई और अन्यतम शक्ति रखने वाली हिंदी पिछड़ गई।
हिंदी के विकास की सम्भावनाएं :
हिंदी ने अपनी शक्ति के बल पर सैकड़ों वर्षों से अपना विकास किया है। आज हिंदी जापान से लेकर अमेरिका तक में पढ़ाई व सिखाई जा रही है। अगर भारतीय सत्ता के उच्च पदों पर बैठे राजनेता हिंदी को रोजगार की भाषा के रूप में मान्यता दें। हिंदी को सभी परीक्षाओं में आधार भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की जाए तो कोई कारण नहीं कि हिंदी अपना सम्पूर्ण गौरव न प्राप्त कर सके जिसकी वह अधिकारी है।
उपसंहार :
यदि हम राष्ट्र के शुभचिंतक हैं और चाहते हैं कि यह राष्ट्र अपने उत्कर्ष को प्राप्त करे तो हिंदी के विकास का मार्ग अपनाना ही होगा। वह दिन अब दूर नहीं है जब हिंदी अपने वास्तविक अधिकार को प्राप्त करेगी।
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