राजनीति में फैलता भ्रष्टाचार

राजनीति में फैलता भ्रष्टाचार
Image : The Citizen

प्रस्तावना :

सामान्यतः राजनीति में इस समय अच्छे लोगों का आना प्रायः समाप्त-सा हो गया है। सुकरात, अरस्तू, चाणक्य, शुक्राचार्य और बृहस्पति आदि ने स्वीकार किया था कि राजनीति सीधी उंगली से निकल पाने वाला घी नहीं है। वह तो टेढ़ी उंगली से ही निकाला जा सकता है। इसके लिए चुस्त, चालाक, गुंडा, बदमाश तथा आवारा और अपराधी वर्तमान परिस्थितियों में राजनीति के लिए आवश्यक तत्त्व हो गए हैं। 

 

जिस समय देश में स्वतंत्रता का राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था, उस समय त्याग, बलिदान और उत्सर्ग की भावना थी। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ‘राष्ट्रपति’ रहते हुए केवल 500 रुपये में ही अपनी आजीविका व्यतीत करते थे। राष्ट्रपति भवन के एक छोटे से कमरे में ही अपना निवास किया करते थे। तत्कालीन देशभक्तों में देशप्रेम की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। परंतु अब जीवन मूल्य परिवर्तित होकर स्वार्थ की भावना बलवती होती जा रही है।

 

राजनीति के मौलिक उद्देश्य :

राजनीति में अपने बल, अपनी शक्ति के प्रयोग का उद्देश्य देश-राष्ट्र की स्वार्थ पूर्ति या अच्छे शब्दों में हित साधन ही सर्वोच्च हुआ करता है- अपना यानी अपने किसी व्यक्ति या उसके परिवार का नहीं। कहा जा सकता है कि राजनीति का साधारण या वास्तविक प्रयोजन तो यही होता है और होना भी चाहिए। अपने देश में स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले और कुछ वर्षों बाद तक भी राजनीति और राजनीतिज्ञों का यही कार्य और उद्देश्य रहा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं। लोकामन्य बाल गंगाधर तिलक, चितरंजन दास, लाला लाजपत राय, महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, मौलाना आजाद, सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि क्रांतिकारी सभी राजनीतिज्ञ ही थे। आज भी इन सबके नाम सुनकर हमारा मस्तक श्रद्धा-सम्मान से नत हो जाता है। इन्होंने राजनीति के नाम से जो कुछ भी किया, वास्तव में अपने महान देश और राष्ट्र के हित साधन को सामने रखकर किया। निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए कभी रत्ती भर भी कुछ नहीं किया किंतु आज की राजनीति और राजनीतिज्ञ क्या कर रहा है, किधर जा रहा है? आज राजनीति करने वाले का अर्थ मात्र अपने निहित स्वार्थों का पूरा करना है। सत्ता की छोटी-मोटी किसी भी कुर्सी पर जिस किसी भी तिकड़म से अपना अधिकार जमाए रखना है ताकि अपनी तथा अपने परिवार और चहेतों की जन्म-जन्मांतरों की भूख मिटाई जा सके। आज तो चारों ओर भ्रष्टाचार, रिश्वत और कुशासन का बोलबाला है, चोर उचक्के चौधरी बने घूमते हैं। इन सबके लिए स्वार्थपरता ही जिम्मेदार है।

 

राजनीति में अपराधिक वृत्ति के कारण :

हमारे विचार में राजनीति के अपराधीकरण का मुख्य कारण एक ही है- सत्ता की और उसके लिए वोट बटोरने की ललक। सत्ता की कुर्सी एवम् उसके आसपास तक पहुँचने के लिए आजकल वोट आधारित गिरोहवाद परम आवश्यक है। इसी कारण बड़े राजनेता अपने आस-पास लठैत गिरोहों को पाले रहते हैं और बड़े लठैत तरह-तरह के छोटे गिरोह को। छुटभैये नेता भी आगे बढ़ने और अपनी राजनीति सुरक्षित रखने के लिए अपनी स्थिति के अनुसार अपने बड़ों का खुल्लम-खुल्ला अनुसरण एवम् अनुकरण करते हैं। आज समाचार पत्रों में जिसे राजनीति का अपराधीकरण कहा जाता है, हमारी दृष्टि में वही वास्तव में राजनीतिक भ्रष्टाचार है।

 

उपसंहार :

प्रदूषण राजनीतिक भ्रष्टाचार व्यथित बल्कि आतंकित कर देने वाली मानवीय समस्या बन चुका है। और देशों में भी इस प्रकार के प्रदूषण के समाचार मिलते रहते हैं अवश्य पर उतने अधिक नहीं जितने कि इस देश में प्रत्यक्ष विद्यमान हैं। राजनीति को प्रत्यक्ष प्रदूषित करने वालों के कारनामे, बैंक घोटालों, प्रतिभूति घोटालों, शेयर घोटालों तथा अन्य सभी प्रकार के घोटालों के उदाहरण सामने आते रहते हैं। अपने-अपने ढंग से छोटे-बड़े सभी राजनीतिज्ञ इस भ्रष्टाचार को बढ़ाने में संलग्न हैं- कोई कर्ज ले-देकर, कोई प्रतिष्ठानों को रकमें देकर, कोई सरकारी उद्यमों को बीमार घोषित करवाकर और फिर स्वयं खरीदकर। प्रदूषण में सांस घुट रही है बेचारे आम आदमी की। घुट रही है तो घुटती रहे, इन राजनीतिज्ञों का अपना स्वार्थ सिद्ध होना चाहिए। भगवान ही बचा सकता है भारतीय जन को राजनीति के इस विषम प्रदूषण से, अन्य कोई नहीं।

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