प्रेमचंद
प्रस्तावना :
कोई रचना रचनाकार की आत्मा से उत्पन्न दिव्य वीणा का वह स्वर होती है जिसमें युगों का संगीत मानो मूर्तिमान हो उठता है। प्रत्येक रचना से पूर्व एक रचनाकार को असीम प्रसव पीड़ा से गुजरना होता है। इस पीड़ा में इतना सुख होता है कि रचनाकार अपनी अनेक कामनाओं, इच्छाओं को भूल जाता है। उसे याद रहता है केवल वह आनंद जिससे रचना की उत्पत्ति होती है। संसार में ऐसे बहुत कम साहित्यकार होते हैं जो समाज में बिखरे विचारों के प्रत्येक मोती को अपने हाथों से सजा-संवारकर उस विचार को कालजयी बना सकें। प्रेमचंद उन बहुत कम वाली श्रेणी के रचनाकार हैं। उन्होंने अपने तत्कालीन समाज में बिखरे लगभग प्रत्येक मोती की खूबसूरती को एक नया रंग दिया जिसकी चमक न तो कभी फीकी पड़ी और न ही कभी पड़ेगी।
जीवन संघर्ष :
प्रेमचंद के बचपन का नाम धनपत राय था। उनका जन्म 31 जुलाई, 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी के निकट लमही नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम अजायब लाल तथा मां का नाम आनन्दी देवी था। प्रेमचंद जब सात वर्ष के थे, तब उनकी मां का निधन हो गया, जिसके पश्चात उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली। विमाता की अवहेलना एवं निर्धनता के कारण उनका बचपन अत्यंत कठिनाइयों में बीता।
प्रेमचंद की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। जब वे पढ़ाई कर रहे थे तब ही पन्द्रह वर्ष की अल्प आयु में उनका विवाह कर दिया गया। विवाह के बाद घर-गृहस्थी का बोझ उनके कंधों पर आ गया था। घर-गृहस्थी एवं अपनी पढ़ाई का खर्चा चलाने के लिए उन्होंने ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। इस तरह से संघर्ष करते हुए उन्होंने बी.ए. तक की शिक्षा पूरी की। इस बीच उनका अपनी पहली पत्नी से अलगाव हो गया, जिसके बाद उन्होंने शिवरानी देवी से दूसरा विवाह कर लिया।
हंस का प्रकाशन एवं विभिन्न पत्रिकाओं का सम्पादन उन्होंने अपने सम्पादन :
में वर्ष 1930 में बनारस से ‘हंस’ नामक एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। आर्थिक अभाव एवं अंग्रेजों की गलत नीतियों के कारण मजबूरन उन्हें इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा। ‘हंस’ के अतिरिक्त उन्होंने ‘मर्यादा’, ‘माधुरी’ एवं ‘जागरण’ जैसी पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया।
रचनात्मक जीवन :
प्रेमचंद पहले नवाब राय के नाम से लिखते थे, जब उनकी कुछ रचनाओं, जिनमें ‘सोजेवतन’ प्रमुख है, को ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया, तो उन्होंने प्रेमचंद छद्म नाम से लिखना शुरू किया। उर्दू में प्रकाशित होने वाली जमाना पत्रिका के सम्पादक और उनके दोस्त दयानारायण निगम ने प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी थी। बाद में वे इसी नाम से प्रसिद्ध हो गए। प्रेमचंद ने सबसे पहले जिस कहानी की रचना की थी, उसका नाम है- ‘दुनिया का सबसे अनमोल रत्न’, जो पूनम नामक उर्दू कहानी संग्रह में प्रकाशित हुई थी। उनकी अंतिम कहानी ‘कफन’ थी। उन्होंने अठारह उपन्यासों की रचना की, जिनमें सेवासदन, निर्मला, कर्मभूमि, गोदान, गबन, प्रतिज्ञा, रंगभूमि उल्लेखनीय हैं। ‘मंगल सूत्र’ उनका अंतिम उपन्यास था, जिसे वे पूरा नहीं कर पाए। इस उपन्यास को उनके पुत्र अमृत राय ने पूरा किया। उनके द्वारा रचित तीन सौ से अधिक कहानियों में ‘कफन’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘पूस की रात’, ‘ईदगाह’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘पंच परमेश्वर’ इत्यादि उल्लेखनीय हैं। उनकी कहानियों का संग्रह ‘मानसरोवर’ नाम से आठ भागों में प्रकाशित है। उनके द्वारा रचित नाटकों में ‘संग्राम’, ‘कर्बला’, ‘रूठी रानी’ तथा ‘प्रेम की बेदी’ प्रमुख हैं। उन्होंने इन सबके अतिरिक्त कई निबन्ध तथा जीवन चरित भी लिखे। उनके निबंधों का संग्रह ‘प्रेमचंद के श्रेष्ठ निबंध’ नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित है। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अनुवाद भी किया, जिनमें ‘सृष्टि का प्रारम्भ’, ‘आजाद’, ‘अहंकार’, ‘हड़ताल’ तथा ‘चांद की डिबिया’ उल्लेखनीय हैं। प्रेमचंद ने संवैधानिक सुधारों तथा सोवियत रूस और टर्की में हुई क्रांति आदि विषयों पर भी खूब लिखा। उनकी कई कृतियाँ अंग्रेजी, रूसी, जर्मनी सहित अनेक भाषाओं अनूदित हुई हैं।
प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से भारत के दलित एवं उपक्षित वर्गों का नेतृत्व करते हुए उनकी पीड़ा एवं विरोध को वाणी प्रदान की। उनकी रचनाओं का एक उद्देश्य होता था। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने न केवल सामाजिक बुराइयों के दुष्परिणामों की व्याख्या की, बल्कि उनके निवारण के उपाय भी बताए। उन्होंने बाल विवाह, बेमेल विवाह, विधवा विवाह, सामाजिक शोषण, अंधविश्वास इत्यादि सामाजिक समस्याओं को अपनी कृतियों का विषय बनाया एवं उनमें यथासम्भव इनके समाधान भी प्रस्तुत किए। ‘कर्मभूमि’ नामक उपन्यास के माध्यम से उन्होंने छुआछूत की गलत भावना एवं अछूत समझे जाने वाले लोगों के उद्धार का मार्ग बताया है।
उन्होंने लगभग अपनी सभी रचनाओं में धर्म के ठेकेदारों की पूरी आलोचना की है एवं समाज में व्याप्त बुराइयों के लिए उन्हें जिम्मेदार मानते हुए जनता को उनसे सावधान रहने का संदेश दिया है। ‘सेवासदन’ नामक उपन्यास के माध्यम से उन्होंने नारी शोषण के खिलाफ आवाज उठाई है। अपनी कई रचनाओं में उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर गहरा आघात किया एवं ‘कर्बला’ नामक नाटक के माध्यम से उनमें एकता व भाईचारा बढ़ाने का सार्थक प्रयास किया।
इस तरह देखा जाए तो अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रेमचंद ने न केवल ‘कलम के सिपाही’ के रूप में ब्रिटिश सरकार से लोहा लिया, बल्कि समाज सुधार के पुनीत कार्य को भी बखूबी अंजाम दिया। प्रेमचंद ने हिंदी में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की शुरूआत की। उनके उपन्यास ‘गोदान’ को यथार्थवादी उपन्यास की संज्ञा दी जाती है, क्योंकि इसके नायक होरी के माध्यम से उन्होंने समाज के यथार्थ को दर्शाया है। गांव का निवासी होने के कारण उन्होंने किसानों के ऊपर हो रहे अत्याचारों को नजदीक से देखा था, इसलिए उनकी रचनाओं में यथार्थ के दर्शन होते हैं। उन्हें लगता था कि सामाजिक शोषण एवं अत्याचारों का उपाय गांधीवादी दर्शन में है, इसलिए उनकी रचनाओं में गांधीवादी दर्शन की भी प्रधानता है।
प्रेमचंद ने गाँव के किसान एवं मोची से लेकर शहर के अमीर वर्ग एवं सरकारी मुलाजिमों तक को अपनी रचनाओं का पात्र बनाया है। वस्तुतः यदि कोई व्यक्ति उत्तर भारत के रीति-रिवाजों, भाषाओं, लोगों के व्यवहार, भारतीय नारियों की स्थिति, जीवन-शैली, प्रेम प्रसंगों इत्यादि को जानना चाहे तो वह प्रेमचंद के साहित्य में ही पूरा-पूरा उपलब्ध हो जाएगा। उनके पात्र साधारण मानव हैं, आम व्यक्ति हैं। ग्रामीण अंचल ही उनका कैनवास है। उन्होंने तत्कालीन समाज का चित्रण इतनी सच्चाई और ईमानदारी से किया है कि वह एकदम सजीव लगता है। प्रेमचंद की तुलना मैक्सिम गोर्की, थॉमस हार्डी जैसे लेखकों से की जाती है। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ कहकर सम्बोधित किया। प्रेमचंद ने मोहन दयाराम भवनानी की अजन्ता सिनेटोन कम्पनी में कहानी लेखक की नौकरी भी की, उन्होंने वर्ष 1934 में प्रदर्शित फिल्म ‘मजदूर’ की कथा लिखी। सत्यजीत राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फिल्में बनाई – 1977 में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ तथा वर्ष 1981 में ‘सद्गति’। वर्ष 1938 में सुब्रह्मण्यम ने ‘सेवासदन’ उपन्यास पर फिल्म बनाई। वर्ष 1977 में मृणाल सेन ने उनकी कहानी ‘कफन’ पर आधारित ‘ओका ऊरी कथा’ नामक तेलुगू फिल्म बनाई, जिसे सर्वश्रेष्ठ तुलुगू फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।
देहावसान :
जलोदर नामक एक बीमारी के कारण उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का 8 अक्टूबर, 1938 को निधन हो गया।
उपसंहार :
भारत के नव-निर्माण एवं नवजागरण के लिए साहित्य सृजन का मार्ग बनाने वाले प्रेमचंद की रचनाओं के माध्यम से हिंदी को दुनियाभर में एक विशिष्ट पहचान मिली। इसके लिए हिंदी साहित्य प्रेमचंद का सदैव ऋणी रहेगा।
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