नदी जोड़ो योजना
प्रस्तावना :
आदि काल से ही भारतीय सभ्यता में नदियाँ पूज्य मानी जाती रही हैं। प्रातः नदियों के नाम का स्मरण अत्यंत फलदायी माना जाता है। यहाँ गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियों को माता का दर्जा दिया गया है, तो ब्रह्मपुत्र को देवता का। हमारे देश में नदियों की असीम महत्ता इस बात से भी सिद्ध होती है कि यहाँ के प्रायः बड़े शहर नदियों के किनारे ही बसाए गए हैं। निश्चय ही भारत की समृद्धि में यहाँ के विभिन्न प्रांतों में प्रवाहमान नदियों का अपूर्व योगदान है। ये नदियाँ हमें अमृततुल्य जल प्रदान करती हैं।
नदियों को जोड़ने की शुरुआत :
वर्तमान समय में इन नदियों से प्राप्त होने वाले जल संसाधन हमारी सवा करोड़ जनसंख्या की विविध आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कम पड़ने लगे हैं। प्रदूषण के बढ़ते प्रभाव के कारण दिनोंदिन पेयजल का संकट गहराता जा रहा है, वहीं इन नदियों से आने वाली बाढ़े प्रतिवर्ष देश के कई भागों में तबाही मचा देती हैं, जिसके कारण सम्पूर्ण देश को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इन्हीं सब समस्याओं के निराकरण के उद्देश्य से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने अक्टूबर, 2002 में महत्त्वाकांक्षी ‘नदी जोड़ो परियोजना’ का शुभारंभ किया।
‘अमृत क्रांति’ नाम से शुरू की गई इस परियोजना पर वर्ष 2003 में काम शुरू हुआ, लेकिन शुरूआत के साथ ही इस परियोजना पर विवाद प्रारंभ हो गया। वर्ष 2004 में यूपीए सरकार के आने के पश्चात् इस परियोजना पर काम रुक गया। इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए फरवरी, 2012 में इस परियोजना को समयबद्ध तरीके से कार्यान्वित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने उच्चाधिकार प्राप्त कमेटी गठित की। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उठाए गए इस कदम से आठ वर्षों से ठंडे बस्ते में पड़ी इस परियोजना को नवजीवन प्राप्त हुआ और देशभर में नदियों को जोड़ने की बात फिर से जोर पकड़ने लगी।
इस परियोजना के लिए राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (NWDA) द्वारा भारत की नदियों को दो वर्गों में विभाजित किया गया। प्रथम श्रेणी की नदियों में हिमालय आदि ग्लेशियर से निकलने वाली गंगा, यमुना जैसी नदियाँ हैं, जिनमें गर्मियों में भी पानी बहुत कम नहीं होता। कृषि, पेयजल, पनबिजली आदि क्षेत्रों में काफी उपयोगी होने के बावजूद ये नदियाँ अपने आस-पास के क्षेत्रों में भीषण बाढ़ लाकर तबाही मचाने में भी कोई कसर नहीं छोड़तीं।
द्वितीय श्रेणी की नदियों में मुख्यतः दक्षिण भारत में प्रवाहमान पहाड़ी प्रदेशों से निकलने वाली नदियाँ हैं, जो वर्षा ऋतु में तो भयंकर बाढ़ लाकर विनाश का ताण्डव मचाती हैं, पर गर्मियों में पानी के लिए तरसती हुई मृतप्राय हो जाती हैं। इन दोनों श्रेणियों की नदियों से भारत के सभी प्रदेशों में पूरे वर्ष आवश्यक जलापूर्ति की जा सके और बाढ़ के भीषण संकट से छुटकारा मिलने के साथ-ही-साथ बाढ़ आदि के समय काफी मात्रा में बर्बाद होने वाले वाले जल का नहरों आदि के माध्यम से विभिन्न उपयोगी कार्यों में प्रयोग किया जा सके, इन्हीं मानव कल्याणार्थ उद्देश्यों को ध्यान में रखकर नदी जोड़ो योजना को प्रारंभ किया गया।
नदी जोड़ो परियोजना से लाभ :
इस महत्त्वाकांक्षी योजना से जुड़े वैज्ञानिकों व इंजीनियरों का मानना है कि देश की नदियों को आपस में जोड़ने से यहाँ की 90% कृषि योग्य भूमि को सिंचाई आदि की सुविधाएँ प्राप्त हो सकेंगी। गंगा, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों से आने वाली बाढ़ों को रोककर दक्षिण भारत की नदियों में गर्मियों में भी जलापूर्ति की समस्या का निदान हो सकेगा। इस उपयोगी योजना से विद्युत उत्पादन कम-से-कम दोगुना हो जाएगा, जल परिवहन के क्षेत्रों का भी विस्तार होगा। कृषि, ऊर्जा, निर्माण, यातायात, उद्योग आदि क्षेत्रों का विकास होने से रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। इससे शहरों की ओर पलायन को रोकना सम्भव हो सकेगा। उत्पाद में भी कम-से-कम 40% की वृद्धि हो सकेगी।
परियोजना से हानि :
निश्चय ही नदी जोड़ो योजना को देशके लिए बहुउपयोगी एवं अत्यंत लाभकारी बताया जा रहा है, पर यह भी उल्लेखनीय है कि योजना आयोग के द्वारा इसे पूर्णतः अव्यावहारिक बताया जा चुका है और पर्यावरणविदों द्वारा भी इसे भविष्य के लिए खतरनाक बताया जा रहा है। वास्तव में देखा जाए तो इस योजना को व्यावहारिक रूप देने से बहुत-सी नई समस्याएँ भी जन्म लेंगी।
नदियों को नहरों द्वारा जोड़ने के दौरान घनी आबादी वाले क्षेत्रों के साथ-साथ वन आदि क्षेत्र भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होंगे। देशभर में नहरों का जाल बिछाए जाने से वन क्षेत्र कम होंगे और बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापन का दंश भी झेलना पड़ेगा। बांधों के बनाने के दौरान कई क्षेत्र जलमग्न हो जाएँगे। नदियों को आपस में जोड़ने के बाद बरसात के मौसम में नदियों में एक साथ बाढ़ आने से उस पर नियंत्रण करना सम्भव न हो सकेगा। गंगा व ब्रह्मपुत्र का संबंध नेपाल व बांग्लादेश से होने के कारण इनके जल उपयोग को लेकर अंतर्राष्ट्रीय मनमुटाव उत्पन्न होने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। देश के प्रांतों में भी जल विवाद उत्पन्न होने की प्रबल सम्भावना है।
भारत जैव-विविधता वाला देश है और इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रत्येक नदी का अपना ईको-सिस्टम होता है। ऐसे में सभी नदियों को आपस में जोड़ने से हम प्रकृति से वरदानस्वरूप प्राप्त जैव-विविधता से हाथ धो बैठेंगे, जिसका दुष्परिणाम हमें वनस्पतियों और जीवों की कई प्रजातियों को खोकर भुगतना पड़ेगा। नदियों को जोड़ने से स्वच्छ नदियों का पानी भी प्रदूषित हो जाएगा, जिससे सम्बद्ध क्षेत्रों से सजीव जगत के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। नदी जोड़ो योजना से भूमि की प्रकृति बदल जाएगी, फलस्वरूप प्रभावित क्षेत्र सदियों पुरानी अपनी पहचान को खोने लगेंगे। निश्चय ही वर्षा और धूप के अलावा पानी और मिट्टी के रासायनिक तत्त्व सम्बद्ध क्षेत्र के पेड़-पौधों के स्वरूप को प्रभावित करते हैं। नदियों को जोड़ने से न सिर्फ खेती का तरीका बदल जाएगा, बल्कि अर्थतंत्र पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
उपसंहार :
अंततः यह कहा जा सकता है कि सरकार द्वारा चलाई जा रही इस परियोजना में सजीव जगत के हित की अनदेखी न हो, पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे, सिर्फ अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु हमारी आने वाली पीढ़ियों को भीषण संकट का सामना न करना पड़े, इन बातों को विशेष महत्त्व दिया जाना चाहिए। सिर्फ योजना को पूर्ण करने के नाम पर अनावश्यक रूप से नदियों को आपस में न जोड़ा जाए, इसका ध्यान रखना भी आवश्यक है। सरकार को जल संकट से उबरने के लिए नदियों को जोड़ने की तुलना में भू-जल संरक्षण से सम्बद्ध कानून बनाने पर जोर देना चाहिए और देश की जनता को जल की बर्बादी रोकने हेतु जागरूक करना चाहिए। देशमें असली अमृत क्रांति तो यहाँ के लोगों में जल उपयोग के प्रति जन-चेतना जागृत करके ही लाई जा सकती है।
अधिक निबंधों के लिए :