मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
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धर्म को सामान्यतः अंग्रेजी शब्द ‘रीलिजन’ के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है, जिसे मजहब, मत, पन्थ आदि के संदर्भ में स्वीकार किया जाता है। धर्म की व्याख्या करते हुए ‘मनुस्मृति’ में कहा गया है- धर्म, क्षमा, दान, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, तत्त्व ज्ञान, आत्मज्ञान, सत्य और अक्रोध शुद्धात्मा के दस लक्षण हैं। वस्तुतः जीवन में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है, जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। यह वह तत्त्व है, जिससे मनुष्य अपने मानवीय गुणों का विकास करता है यह सार्वभौमिक चेतना का सत्संकल्प है।

 

प्रख्यात दार्शनिक एवं भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने धर्म की भारतीय अवधारणा को स्पष्ट करते हुए लिखा है- ‘जिन सिद्धांतों के अनुसार हम अपना दैनिक जीवन व्यतीत करते हैं तथा जिनके द्वारा हमारे सामाजिक संबंधों की स्थापना होती है, वे सब धर्म ही हैं। धर्म जीवन का सत्य और हमारी प्रकृति को निर्धारित करने वाली शक्ति है।’

 

पाश्चात्य चिंतन में भी दार्शनिक कवि गेटे का मानना है- ‘सच्चा धर्म हमें आश्रितों का सम्मान करना सिखाता है और मानवता, निर्धनता, मुसीबत, पीड़ा एवं मृत्यु को ईश्वरीय देन मानता है।’

 

उपरोक्त विचारों के संदर्भ में हम देखते हैं कि धर्म की अवधारणा अलौकिक विश्वासों तथा अधि-प्राकृतिक शक्तियों से सम्बद्ध नहीं है। धर्म में किसी भी प्रकार की अलौकिक शक्ति के प्रति भावना की अपेक्षा आचार संहिता पर जोर दिया जाता है। धर्म के अंतर्गत आत्मा, परमात्मा का अधि-प्राकृत शक्ति की चर्चा नहीं की जाती है। 

 

अपने वास्तविक अर्थ में भी ‘धर्म’ शब्द ‘ब्रह्म’ का पर्याय है। ‘धारयते इति धर्मः’ अर्थात् जिसने समग्र ब्रह्माण्ड को धारण कर रखा है अथवा धारण करते हुए जो सर्वत्र व्याप्त है, वह धर्म है। इस संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण है- धर्मभावना, यही धर्मभावना विभिन्न संकीर्ण मानसिकताओं से ऊपर उठाकर हमें मनुष्ता का पाठ पढ़ाती है। धर्म के अभाव में देवों के लिए भी दुर्लभ यह मानव शरीर पशुवत् हो जाता है। वास्तव में, धर्म का संबंध मानव-मात्र की भलाई या परोपकार से है, लेकिन मानव-समाज के कुछ स्वार्थी लोगों ने धर्म के दायरे को संकीर्ण बनाकर अपने हितों को साधना प्रारंभ कर दिया है। धर्म के बाह्य स्वरूप को आंतरिक स्वरूप से अधिक महत्त्व देते हुए उसकी व्याख्या को संकीर्ण बना दिया और जनसामान्य की भोली मानसिकता को कलुषित करने का कार्य किया है, जिससे अपने पक्ष में उसका इस्तेमाल किया जा सके। यहीं से धार्मिक संकीर्णता प्रारम्भ होती है और समाज अनेक खण्डों में विभाजित हो जाता है।

 

धर्म के साथ अनेक रूढ़ियों, कुरीतियों एवं पाखण्डी क्रियाकलापों को संबंधित करके समाज के अंदर कई विभाजन कर दिए। मनुष्यता के वास्तविक लक्ष्य को भूलकर निहित स्वार्थी तत्त्वों ने अपने लाभ के लिए मानव-मानव के बीच भेदभाव के गहरे बीज बो दिए, जबकि कोई भी धर्म कभी भी मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद करना नहीं सिखाता। किसी भी धर्म का लक्ष्य मानव-मात्र की सेवा करना, उसके उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता कराना एवं मानव-मानव को एक-दूसरे के साथ जोड़कर रखना होता है। किसी भी धर्म का अंतिम उद्देश्य मानवता के संदेश का प्रसार करना होता है। सम्प्रदाय विशेष के नाम पर विचारों, आदर्शों आदि की स्थापना करना मानव समुदाय की संकीर्ण भावना का सूचक है।

 

भारतीय समाज विविधताओं में एकता वाला समाज है। यहाँ लगभग सभी क्षेत्रों में असंख्य विविधताएँ देखने को मिलती हैं। धर्म संबंधी विविधता भी उनमें से एक है, हालांकि इन विविधताओं को अधिक महत्त्व न देने की सलाह भारतीय समाज के अनेक मनीषियों एवं समाज सुधारकों ने समय-समय पर गम्भीरता के साथ दी है। उन्हीं में से एक महान कवि एवं समाज सुधारक कबीर भी थे। कबीर ने अपने कई दोहों में धर्म की संकीर्णता को त्यागकर मानवता की उदात्त भावना को आत्मसात करने का सुझाव पूरी ईमानदारी एवं सहृदयता के साथ दिया –

 

‘माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर।

कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर ।।’

 

कबीर ने अपनी फटकार में न पाखण्डी पंडितों का छोड़ा, न अंधविश्वासी मौलवियों को। वे कर्मकाण्ड के सख्त विरोधी थे। एक ओर सिर्फ दिखावा करने वाले नमाजियों का विरोध किया, तो दूसरी ओर माला फेरने वाले पाखण्डी पंडितों को भी खरी-खोटी सुनाई। वास्तव में, कबीर न केवल महान कवि थे, बल्कि गंभीर चिंतक, ईश्वर के सच्चे भक्त, क्रांतिकारी, समाज सुधारक एवं मानवता के प्रखर सन्देशवाहक थे। कबीर ही नहीं, बल्कि पूरे भक्ति-काव्य की एक और चेतना थी- मानवता के धर्म की प्रतिष्ठा । 

 

आधुनिक समय में भी हमने अपने संविधान में सिर्फ मानव-मात्र को ही महत्त्व दिया। भारतीय संविधान में स्पष्ट कहा गया है कि धर्म, जाति या लिंग किसी भी आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता, लेकिन वास्तविकता यह है कि हमारी राजनीतिक गतिविधियों में सांप्रदायिकता, जातीयता, क्षेत्रीयता जैसी भावनाएँ गहराई तक प्रवेश कर चुकी हैं। हमारी राजनीतिक व्यवस्था संकीर्णतावादी प्रवृत्तियों के दबाव से उबर नहीं पा रही है। हमारे नेताओं ने भारतीय उपसंस्कृति के समन्वय द्वारा राष्ट्रीय संस्कृति का विकास नहीं किया। धर्मनिरपेक्षता को सिर्फ राज्य तक सीमित कर देने के कारण अलग-अलग उपसंस्कृतियों एवं धार्मिक पहचानों का प्रबल हो जाना स्वाभाविक है, लेकिन राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा हेतु धर्मनिरपेक्षता अनिवार्य शर्त है। राष्ट्रीयता की भावना किसी भी धर्म के विरुद्ध न होकर धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध है।

 

वास्तव में, सच्चे धर्म का मौलिक उद्देश्य राजनीति को मर्यादा के अंतर्गत बांधना है। धर्म राजनीतिज्ञों को प्रजा की भलाई करना सिखाता है। प्रजा के हितों की रक्षा करना ही शासक का कर्तव्य है, यह चेतना धर्म से ही आती है। धर्म के बिना राजनीति निर्दयी बन जाती है। जिस प्रकार धर्म सुख का मूल है, उसी प्रकार सहानुभूति धर्म का मूल है, इसलिए जब राजनीति को धर्म से दूर रखा जाता है, तब सहानुभूति की भावना समाप्त हो जाती है।

 

आधुनिक युग में भारत जैसे देश में ख्याति चाहने वाले एवं चर्चित रहने वाले नेता धर्म की आड़ लेते हैं। जिन धार्मिक गुरुओं ने धर्म के माध्यम से लोगों को मानव-मात्र से प्रेम, बन्धुत्व एवं एकता की भावना रखने का पाठ पढ़ाया, आज उन्हीं की आड़ लेकर धर्मभीरु जनसामान्य की भावनाओं से खेला जा रहा है। बाबरी मस्जिद एवं राम जन्मभूमि विवाद राजनीतिज्ञों की स्वार्थपरक नीति का ही परिणाम है।

 

गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है- ‘जिमि पाखण्ड विवादे, लुप्त होय सदग्रन्थ’ अर्थात पाखण्ड के फैल जाने पर सच्चे धर्म का लोप हो जाता है। आज देश के प्रत्येक नागरिक को धर्म के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए। ऐसे ज्ञान से ही धार्मिक कलह समाप्त हो पाएगी। लोग स्वार्थी तत्त्वों के बहकावे में नहीं आएँगे। मानव का मान-सम्मान बढ़ेगा। लोगों में प्रेम एवं बन्धुत्व की भावना का विकास होगा।

 

इकबाल की इन पंक्तियों- ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ता हमारा’- में एक ओर एकता का संदेश है, तो दूसरी ओर मानवीयता का, एक ओर राष्ट्रीयता, तो दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीयता। निःसंदेह ये पंक्तियाँ लिखे जाने के समय जितनी प्रासंगिक थीं, उतनी ही प्रासंगिक वर्तमान संदर्भ में भी हैं। आज लोगों को धर्म की वास्तविक चेतना को समझना होगा और उसके अनुरूप मानव-मात्र के साथ प्रेम एवं आत्मीयता का संबंध स्थापित करना होगा, क्योंकि धर्म का मूल सार मानवीयता और मानव प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।

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