लोकनायक जयप्रकाश नारायण
प्रस्तावना :
यदि कोई ऐसे गांधीवादी व्यक्ति का नाम पूछे जो आवश्यकता पड़ने पर सशस्त्र क्रांति का मार्ग अपनाने से भी पीछे न हटा हो, जिसने अपनी आत्मशक्ति के बल पर युग को परिवर्तित कर दिया हो, तो केवल एक ही महान व्यक्ति, जयप्रकाश नारायण का नमा आएगा, जो अपनी जुझारू प्रवृत्ति और अभूतपूर्व नेतृत्व क्षमता के कारण अपने समकालीन युवा वर्ग ही नहीं, बल्कि पूरे जनमानस के लोकप्रिय नेता बनकर उभरे और जनता ने उन्हें ‘लोकनायक’ के सम्बोधन से विभूषित किया।
जन्म एवं शिक्षा :
लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जन्म बिहार प्रांत के छपरा जिले के सिताब दियारा नामक गाँव में 11 अक्टूबर, 1902 को हुआ था। उनके पिता का नाम श्री हरसू दयाल तथा माता का नाम श्रीमती फूलनरानी देवी था। उनकी माता एक धर्मपरायण महिला थीं। तीन भाई और तीन बहनों में जयप्रकाश अपने माता-पिता की चौथी संतान थे। उनसे बड़े एक भाई और एक बहन की मृत्यु हो जाने के कारण उनके माता-पिता उनसे अपार स्नेह रखते थे। अपने गाँव सिताब दियारा में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात जयप्रकाश जी आगे की पढ़ाई के लिए पटना चले गए।
16 मई, 1920 को बिहार के प्रसिद्ध जनसेवी बृजकिशोर बाबू की सुपुत्री प्रभावती से जयप्रकाश जी का विवाह हुआ। वर्ष 1921 में गांधी जी के असहयोग आंदोलन में सक्रिय भाग लेने के लिए वे सरकारी कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में चल रहे बिहार विद्यापीठ में चले गए। वहीं से उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। वर्ष 1922 में वे एक छात्रवृत्ति पर अध्ययन के लिए अमेरिका चले गए और वहाँ के ओहियो विश्वविद्यालय से स्नातक एवं स्नातकोत्तर (एम.ए.) की डिग्रियाँ प्राप्त कीं। अमेरिका में उन्होंने पीएचडी में प्रवेश लिया, पर मां की बीमारी के कारण वर्ष 1929 में वापस स्वदेश लौट आने के कारण वे इसे पूरा नहीं कर सके। वर्ष 1932 में गांधी, नेहरू जैसे नेताओं के साथ-साथ जयप्रकाश नारायण को भी गिरफ्तार कर नासिक जेल भेज दिया गया, जहाँ उनकी मुलाकात मसानी, अच्युत पटवर्द्धन, अशोक मेहता, नारायण स्वामी जैसे नेताओं से हुई। इन सभी की चर्चाओं ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को जन्म दिया।
सार्वजनिक जीवन की शुरुआत :
अमेरिका से लौटने के पश्चात् कुछ समय तक वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रवक्ता रहे, लेकिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के उद्देश्य से उन्होंने नौकरी छोड़ दी और कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए। वर्ष 1934 में कांग्रेस की नीतियों से असंतुष्ट नवयुवकों ने जब अखिल भारतीय कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना की तो जयप्रकाश नारायण इसके संगठन मंत्री बन गए। इस पार्टी में उनके साथ राम मनोहर लोहिया, अशोक मेहता और आचार्य नरेन्द्र देव जैसे राजनेता भी थे। आचार्य नरेन्द्र देव एवं जयप्रकाश दोनों ने मिलकर समाजवादी आंदोलन को आगे बढ़ाया। जयप्रकाश नारायण देशभर में घूमकर समाजवादी आंदोलन का प्रचार किया करते थे।
इसके कारण वर्ष 1934 से 1946 के बीच ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कई बार जेल की सलाखों के पीछे भेजा, किंतु बार-बार वे जेल कर्मचारियों को चकमा देकर फरार होने में सफल रहे। विचारों में मतभेद होने के बाद भी गांधीजी जयप्रकाश जी से काफी अनुराग रखते थे। 7 मार्च, 1940 को जब उनको पटना में गिरफ्तार कर चाईबासा जेल में बंद कर दिया गया, तब गांधी जी ने कहा था- ‘जयप्रकाश नारायण की गिरफ्तारी एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। वे कोई साधारण कार्यकर्ता नहीं हैं, बल्कि समाजवाद के महान विशेषज्ञ हैं।’
देश की आजादी के प्रति उनकी ललक और इसे शीघ्र प्राप्त करने के लिए उनके अदम्य साहस भरे कारनामों के बिना उनकी जीवनगाथा अधूरी ही रह जाएगी। वर्ष 1942 में जब पूरा देश गांधीजी के ‘करो या मरो’ के नारे के उद्घोष के साथ अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दे रहा था, उस समय ये हजारीबाग जेल से फरार होने के उपाय ढूंढ़ रहे थे। 9 नवम्बर, 1942 को दीपावली की रात्रि का वह समय भी आया, जब उन्होंने साबित कर दिया कि दुनिया में कोई ऐसी जेल बनी ही नहीं थी, जो अधिक दिनों तक जयप्रकाश को कैद रख सकती थी। उस रात जब सभी बंदी दीपावली का त्यौहार मनाने में व्यस्त थे, अपने छः मित्रों के साथ जयप्रकाश धोतियों से बनाई रस्सी की मदद से जेल की दीवार को लांघकर फरार होने में कायामब रहे। उनके फरार होने से जेल अधिकारियों के होश उड़ गए। सरकार ने उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए 10,000 रुपये का इनाम की घोषणा की। जयप्रकाश का आजाद घूमना ब्रिटिश सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी। वर्ष 1942 से 1946 तक कई बार उन्हें जेल भेजा गया, पर अपनी मातृभूमि के सच्चे सपूत जयप्रकाश नारायण अपनी जान की परवाह किए बिना हर बार अंग्रेजों को तब तक चकमा देते रहे, जब तक वर्ष 1946 में सरकार ने स्वयं उन्हें कारागार से मुक्त नहीं कर दिया। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नेपाल जाकर ‘आजाद दस्ते’ का गठन किया तथा उसे प्रशिक्षण दिया।
वर्ष 1947 में देश की आजादी के बाद भी वह राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे। 19 अप्रैल, 1954 को बिहार के गया में उन्होंने विनोबा भावे के सर्वोदय आंदोलन के लिए जीवन समर्पित करने की घोषणा की। सर्वोदय के संदेश को पूरे विश्व में फैलाने के लिए उन्होंने कई देशों की यात्रा की। वर्ष 1972 में जयप्रकाश जी ने चम्बल के डाकुओं के आत्मसमर्पण में अग्रणी भूमिका अदा कर उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का कार्य कर दिखाया, जो कोई और नहीं कर सकता था। वर्ष 1970 से उन्होंने तत्कालीन सरकार की नीतियों का विरोध करना प्रारंभ किया। वर्ष 1974 में बिहार तथा गुजरात के छात्र आंदोलन का उन्होंने सफलतापूर्वक नेतृत्त्व करते हुए सम्पूर्ण क्रांति की घोषणा की।
यही वह समय था, जब जयप्रकाश अपने संक्षिप्त नाम ‘जेपी’ के रूप में विख्यात हुए और ‘लोकनायक’ कहलाने लगे। वर्ष 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने जब राष्ट्रीय आपातकाल लागू किया, तब जयप्रकाश जी ने इसका भरपूर विरोध किया। इस विरोध को दबाने के लिए उन्हें चण्डीगढ़ जेल में डाल दिया गया। अंततः वे अपने संघर्ष में कामयाब हुए और अपने अभूतपूर्व नेतृत्त्व के बल पर जनता पार्टी को वर्ष 1977 के चुनाव में विजयश्री दिलवाई। वे चाहते तो उस समय सरकार में कोई भी उच्च पद प्राप्त कर सकते थे, किंतु सभी पदों को अस्वीकार कर उन्होंने सिद्ध कर दिया कि उन्हें केवल देश सेवा से लगाव था, न कि पद और सत्ता से। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें वर्ष 1998 में सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया। इससे पूर्व उन्हें ‘रैमन मैग्सेसे पुरस्कार’ से भी वर्ष 1965 में सम्मानित किया गया।
जय प्रकाश नारायण द्वारा लिखित पुस्तकें :
अपने अमेरिका प्रवास के दौरान जयप्रकाश समाजवादी विचारधारा से प्रभावित हुए थे और जीवन-भर इसे बढ़ाने के लिए संघर्ष करते रहे। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर उन्होंने ‘फ्रॉम सोशलिज्म टू सर्वोदय’, ‘टूवर्ड्स स्ट्रगल’, ‘ए पिक्चर ऑफ सर्वोदय सोशल ऑर्डर’, ‘सर्वोदय एण्ड वर्ल्ड पीस’ नामक कई पुस्तकें भी लिखीं। उनकी रचनाओं का संग्रह ‘ए रिवोल्यूशनरी क्वेस्ट’ के नाम से प्रकाशित है। उनका मानना था कि भारत की समस्याओं का समाधान समाजवादी तरीके से ही सम्भव है। उनके लिए समाजवाद का अर्थ था- स्वतंत्रता, समानता तथा बन्धुत्व की स्थापना था। उनकी दृष्टि में समाजवाद, सामाजिक-आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए एक पूर्ण विचारधारा थी।
देहावसान :
जयप्रकाश नारायण का निधन 8 अक्टूबर, 1979 को पटना में हृदय की बीमारी और मधुमेह के कारण हो गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने उनके सम्मान में 7 दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा की।
उपसंहार :
वास्तव में जयप्रकाश नारायण लोकतंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के आलोचक थे। वे ऐसे समाज की स्थापना पर जोर देते थे, जो सहकारिता, आत्मानुशासन और उत्तरदायित्व की भावना से परिपूर्ण हो। वे सत्ता का विकेद्रीकरण कर ग्राम स्वराज्य की स्थापना को महत्त्वपूर्ण मानते थे।
उनके इस दुनिया से विदा लेने के साथ ही सम्पूर्ण क्रांति की कांति मंद पड़ गई, किंतु देश को सर्वोदय एवं समाजवादी क्रांति की जो राह उन्होंने दिखाई, उस पर चलते हुए भारत आज भी समाजवादी लोकतंत्र के रूप में अपने राजनीतिक पथ पर सफलतापूर्वक एवं तीव्र गति से अग्रसर है।
सफलता असफलता मानव जीवन का अनिवार्य अंग है। कभी-कभी तो बड़े-से-बड़ा विचारक भी इस बात का निर्णय कर पाने में अक्षम हो जाता है कि वह किस बात को सफलता कहे और किसे असफलता। जय प्रकाश जी के जीवन का गणित भी कुछ इसी प्रकार है। उन्होंने इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में मंत्री पद स्वीकार नहीं किया। जनता पार्टी की विजय के बाद वे चाहते तो प्रधानमंत्री भी बन सकते थे, परंतु पद के प्रति मोह अथवा पदलोलुपता उनके अंदर कभी नहीं रही। इसके बावजूद उन्होंने जीवन में जो करना चाहा अपने आत्मबल से उसे किया और आने वाली पीढ़ियों को यह बताया कि अन्याय के प्रति संघर्ष ही मानव जीवन की सार्थकता है।
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