जलवायु परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन
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प्रस्तावना :

जलवायु का मूल अर्थ है, किसी एक स्थान पर लम्बी कालावधि तक बनी रहने वाली विशिष्ट वायुमंडलीय अवस्था। सामान्यतः किसी क्षेत्र की 30-35 वर्षों के लम्बे समय की औसत वायुमंडलीय दशाओं को जलवायु कहते हैं। परिवर्तनशीलता जलवायु का गुण है। समय एवं स्थान के संदर्भ में जलवायु परिवर्तन एक स्वाभाविक परिघटना है। उदाहरण के लिए गर्म एवं आर्द्र जलवायु के स्थान पर गर्म एवं शुष्क जलवायु का होना, गर्म एवं आर्द्र जलवायु का आर्द्र एवं शीत जलवायु में परिवर्तन (जैसाकि भारत में कार्बनिफरस युग में हुआ था) आदि। विश्व के सभी स्थानों पर जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया सतत रूप से चलती रहती है।

 

जलवायु परिवर्तन के कारक :

जलवायु परिवर्तन का संबंध वायुमंडल के ऊष्मा संतुलन, आर्द्र मेघाच्छन्नता तथा वर्षा में त्वरित एवं अचानक अल्पकालिक या दीर्घकालिक परिवर्तन से होता है। जलवायु में इस तरह के परिवर्तन या तो बाह्य कारकों या आंतरिक कारकों या दोनों प्रकार के ही कारकों द्वारा प्रभावी होते हैं। जलवायु परिवर्तन के कारकों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है- प्राकृतिक व मानव निर्मित। जलवायु परिवर्तन के मुख्य प्राकृतिक कारक निम्न हैं-

 

महाद्वीपों का खिसकना – हम आज जिन महाद्वीपों को देख रहे हैं वे पृथ्वी की उत्पत्ति के साथ ही निर्मित हुए थे। महाद्वीपों के अंतर्जात बल एवं प्लेटों के टकराने की वजह से इनका निरंतर खिसकना जारी रहता है, जिसकी वजह से महाद्वीपों के आंतरिक व बाह्य स्वरूप में बदलाव होता रहता है। यह पूरी प्रक्रिया जलवायु परिवर्तन की पृष्ठभूमि तैयार करती है।

 

ज्वालामुखी विस्फोट – जब भी कोई ज्वालामुखी विस्फोट होता है, तो उससे वातावरण में काफी मात्रा में सल्फर युक्त गैस, धूलकण एवं राख का उत्सर्जन होता है। ये उत्सर्जित पदार्थ लम्बे समय तक वातावरण में बने रहते हैं। ज्वालामुखी से निकली गैसों व प्रदूषकों की वजह से सूर्य का प्रकाश पर्याप्त मात्रा में पृथ्वी तक नहीं पहुँच पाता है, जिससे तापमान में कमी आती है।

 

पृथ्वी का अपने अक्ष पर झुकाव – पृथ्वी अपने अक्ष पर 22.5° के कोण पर झुकी हुई है। इसकी वजह से मौसम क्रम में परिवर्तन होता रहता है और दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में यह जलवायु के कारकों तापमान, वर्षण आदि को प्रभावित करता है।

 

समुद्री तरंगें – पृथ्वी पर फैले महासागर जलवायु का एक प्रमुख भाग हैं। पृथ्वी के 71% भाग पर इनका विस्तार है। इनके द्वारा महाद्वीपों की तुलना में दुगनी सौर ऊष्मा का अवशोषण किया जाता है, जो चक्रवात, वर्षण, सुनामी जैसी- समुद्री आपदाओं के रूप में सामने आती है। उदाहरण के लिए भारत की मानसूनी जलवायु, अलनीनो, लानीना, हुदहुद जलवायु संकेतक महासागरीय प्रभाव के ही द्योतक हैं।

 

इनके अतिरिक्त पृथ्वी की गतियाँ, जेट वायुधाराएँ, महाद्वीपीय भौगोलिक अवस्थिति आदि प्राकृतिक कारक भी जलवायु को प्रभावित करते हैं।

 

जलवायु को प्रभावित करने वाली मानवीय गतिविधियाँ:

वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन की गति एवं प्रभावों में जिस प्रकार की तीव्र वृद्धि देखी जा रही है, इसका मुख्य कारण मानवीय गतिविधियाँ हैं। मानवीय गतिविधियों की वजह से जलवायु में कई बदलाव देखे जा रहे हैं। इनमें हरित क्रांति, भू-मंडलीय उष्मन आदि मुख्य हैं।

 

हरित गृह कृत्रिम आवास को कहा जाता है। जहाँ  ऊष्मा का लगातार संचय होने से गर्म वातावरण निर्मित होता है। वस्तुतः शीतप्रधान देशों में जहाँ  शीतकाल में पर्याप्त सूर्यताप का अभाव होता है, वहाँ पौधों, खासकर फलों एवं सब्जियों के उत्पादन हेतु हरित गृह का प्रयोग किया जाता है। इन हरित गृहों का निर्माण इस प्रकार होता है कि उनमें सूर्य का प्रकाश भीतर से चला जाता है, परंतु वह वापस बाहर नहीं आ पाता। इस प्रकार हरित गृह में ऊष्मा का लगातार संचय होता रहता है।

 

मानव निर्मित वायुमंडलीय हरित गृह प्रभाव ऐसी परिघटना है, जिससे वायुमंडल में मानवजनित कार्बन-डाइऑक्साइड के प्रभाव से पृथ्वी की सतह का तापमान निरंतर बढ़ता रहता है। पृथ्वी के संदर्भ में कार्बन-डाइऑक्साइड तथा जलवाष्प, मीथेन गैस आदि हरित गृह की तरह व्यवहार करते हैं। इसके अतिरिक्त क्लोरोफ्लोरोकार्बन, सल्फर-डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी गैसें भी हरित गृह प्रभाव को गंभीर बनाती हैं। इन सभी को सम्मिलित रूप से हरित गृह गैस कहा जाता है। इनकी एक निर्धारित मात्रा पृथ्वी के लिए कम्बल का काम करती है, परंतु निरंतर बढ़ते औद्योगिकीकरण, जीवाश्म ईंधनों के बढ़ते उपयोग एवं बढ़ते प्रदूषण की वजह से इन गैसों की मात्रा खतरे की सीमा को पार कर चुकी है। इससे भूमंडलीय उष्मन (ग्लोबल वार्मिंग) की एक नवीन चिंता उभरकर सामने आई है।

 

पृथ्वी पर हरित गृह गैसों के निरंतर बढ़ते प्रयोग की वजह से समस्त पृथ्वी के तापमान में वृद्धि देखी गई है। इस घटना को ‘वैश्विक तापन’ कहते हैं। जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर्सरकारीय पैनल ने वैश्विक तापन के बढ़ते खतरे की ओर ध्यान दिलाते हुए अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि यदि तापमान में होने वाली वृद्धि इसी तरह जारी रही तो वर्ष 2100 तक पृथ्वी की सतह का तापमान 1.4°C से 5.8°C तक बढ़ जाएगा। बताया जाता है कि यह तापन उससे भी अधिक होगा जितना की पिछले 10,000 वर्षों में हुआ है। यदि तापमान के परिवर्तन की दर इतनी तीव्र रही तो पारितन्त्र परिवर्तित पर्यावरण के अनुकूल नहीं ढल पाएँगे, जिससे पूरी मानवता के अस्तित्व पर खतरा होने की संभावना है। भू-मंडलीय तापमान बढ़ने के मुख्य कारण हैं जीवाश्म ईंधनों का अतिशय प्रयोग, वृक्षों की अंधाधुंध कटाई, ओजोनमंडल में छेद होने की वजह से सूर्य की पराबैंगनी किरणों का धरातल पर पहुँचना, अति औद्योगिकीकरण आदि।

 

जलवायु परिवर्तन से होने वाली हानियाँ:

जलवायु परिवर्तन के कारण मानव जीवन एवं सम्पूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र पर अत्यंत नकारात्मक प्रभाव देखे जा रहे हैं। इन प्रभावों को निम्न बिंदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है।

 

⇒ जलवायु परिवर्तन का सीधा असर तापमान वर्षण एवं ऋतुचक्र पर पड़ता है। इसका सीधा प्रभाव मृदा, आर्द्रता, जीवाणुओं की उत्पत्ति एवं प्रजनन, पौधों की वृद्धि, पुष्पन आदि पर पड़ता है। इससे एक ओर जहाँ  नवीन प्रकार की बीमारियों में वृद्धि देखी जा रही है, वहीं दूसरी ओर पौधों की प्रतिरोधक क्षमता भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो रही है।

 

⇒ बाढ़-सूखा, सुनामी जैसी आपदाओं में तीव्र गति से वृद्धि देखी जा रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्तमान में खासकर समुद्रतटीय क्षेत्रों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है, क्योंकि वैश्विक तापन की वजह से हिमनदों के पिघलने की दर में तेजी से वृद्धि हुई है। इससे समुद्र का जलस्तर बढ़ता जा रहा है।

 

⇨ पर्यावरण एवं पारितंत्र पर भी जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को जैव-विविधता पर मंडराते संकट के रूप में देखा जा सकता है। इसकी वजह से सैकड़ों पौधों एवं जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं एवं इससे भी अधिक विलुप्त होने की कगार पर हैं।

 

⇨ इन सबके अतिरिक्त, वैश्विक तापन से मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। आज कैंसर, मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, पीत ज्वर, चर्म रोग समेत अन्य संक्रामक बीमारियाँ अत्यधिक तीव्र गति से प्रसारित हो रही हैं। खासकर उष्णकटिबंधीय क्षेत्र इन बीमारियों से ज्यादा आक्रांत हैं।

 

संक्षेप में कहें तो वैश्विक तापन जनित जलवायु परिवर्तन आज खाद्य सुरक्षा एवं जैव-विविधता समेत समस्त मानवता के अस्तित्व पर आसन्न एक गंभीर खतरा बना हुआ है।

 

जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए प्रयास : अब यह तथ्य वैश्विक स्तर पर पूर्णतः स्वीकार किया जा चुका है कि जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी पर बढ़ते तापमान के लिए मानवीय गतिविधियाँ सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। अतः आज वैश्विक स्तर पर इस खतरे से निपटने हेतु प्रयास किए जा रहे हैं।

ये प्रयास निम्नलिखित हैं-

  • संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा ब्राजील की राजधानी रियो-डी जेनेरियो में 1992 में पर्यावरण और विकास सम्मेलन आयोजित किया गया। इसे ‘पृथ्वी शिखर सम्मेलन’ भी कहा जाता है। इसमें ‘सतत विकास’ का नारा दिया गया और विकास एवं पर्यावरण संरक्षण के मध्य तालमेल की बात करते हुए व्यापक कार्रवाई योजना के रूप में ‘एजेण्डा-21’ स्वीकृत किया गया।
  • इसके पश्चात् वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने हेतु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक महत्त्वपूर्ण समझौता किया गया, जिसे ‘क्योटो प्रोटोकाल’ के नाम से जाना गया। इसकी उद्घोषणा 1997 में की गई थी। वर्ष 2005 में इस समझौते को लगभग 141 देशों द्वारा अनुमोदित किया गया। इस समझौते के माध्यम से 35 औद्योगिक राष्ट्रों को कहा गया कि वे कार्बन का उत्सर्जन 2012 तक एक निश्चित सीमा तक घटाने का संकल्प लें। इसमें सभी देशों द्वारा वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के राष्ट्रीय संकल्पों के लिए आम सहमति वाला प्रारूप स्वीकार कर लिया गया।
  • इस समझौते में विकासशील देशों की चिंताओं को भी स्वीकारते हुए ‘विभेदीकरण’ के सिद्धांत को मान्यता दी गई है एवं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह समझौता किया गया है कि सभी देश 2015 में पेरिस में होने वाली बैठक में वैश्विक जलवायु परिवर्तन संबंधी समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे तथा यह समझौता वर्ष 2020 में प्रभावी होगा।

 

जलवायु परिवर्तन से निबटने में आने वाली समस्याएँ: जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के मार्ग में कई बाधाएँ भी है। वस्तुतः विकसित देश एक ऐसा वैश्विक समझौता चाहते हैं, जो एकसमान रूप से सभी देशों पर लागू हो। जबकि विकासशील देश समझौते के संबंध में ‘विभेदीकरण’ के सिद्धांत को लागू करना चाहते हैं। उनका कहना है कि समझौते में विकसित एवं विकासशील देशों के लिए कार्बन कटौती की शर्तें एवं उत्सर्जन के मानक भिन्न-भिन्न हों। साथ ही विकसित देश विकासशील देशों को ‘स्वच्छ प्रौद्योगिकी एवं तकनीक’ कम कीमत पर उपलब्ध कराएँ।

 

इसके अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के संदर्भ में विकास का मुद्दा भी अहम है। कार्बन कटौती का प्रत्यक्ष संबंध औद्योगिकीकरण पर नियंत्रण से है। इस पर विकासशील देशों का तर्क है कि यदि हमने औद्योगिकीकरण की गति पर रोक लगाई तो हमारा विकास एवं राष्ट्रीय आय प्रतिकूल रूप से प्रभावित होंगे। विकासशील देशों का यह भी आरोप है कि विकसित देश जलवायु परिवर्तन संबंधी इन बाध्यकारी समझौतों के माध्यम से हमारे विकास की रणनीति को बाधित करने का षड्यंत्र रच रहे हैं।

 

विकासशील एवं विकसित देशों के मध्य विवाद की एक जड़ यह भी है कि विकसित देश जलवायु परिवर्तन के लिए क्लोरोफ्लोरोकार्बन के उत्सर्जन को ज्यादा महत्त्वपूण् मानते हुए इसके उत्सर्जनकर्ता के रूप में विकासशील देशों पर नियंत्रण हेतु दबाव हे हैं। वहीं विकासशील देश हरित गृह गैसों के उत्सर्जन को मुख् मुख्य कारक मानते बना रहे हुए विकसित देशों पर इसे बढ़ाने का आरोप लगाते रहे हैं। संक्षेप में कहें तो विकसित एवं विकासशील देशों के मध्य समझौते के स्वरूप पर एकमतता न बन पाना दशकों से जलवायु-परिवर्तन समझौता न हो पाने की मुख्य वजह बना हुआ है।

 

उपसंहार :

सारांश में कहा जाए तो जलवायु परिवर्तन अब एक न टाली जाने वाली चुनौती के रूप में आज सम्पूर्ण विश्व के समक्ष खड़ी है। जैसे-जैसे तापमान में वृद्धि होगी, वैसे-वैसे ही गंभीर, व्यापक और न सुधारे जा सकने वाले असर सामने आएँगे। वैश्विक तापन न केवल खाद्य सुरक्षा के लिए संकट खड़ा करेगा वरन् जल, जंगल व जमीन पर आश्रित रहने वाले प्राणियों पर भी इसका असर प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देगा। अतः अब समय आ गया है कि सम्पूर्ण विश्व जलवायु परिवर्तन की इस चुनौती के लिए एकजुट हो जाएँ क्योंकि इसका प्रभाव देश एवं राष्ट्र की सीमाओं में बंधा नहीं होगा, बल्कि पृथ्वी पर जीवन ही खतरे में आ जाएगा। अभी भारत, चीन, ब्राजील जैसे देशों ने मिलकर फैसला किया है कि वे अपने स्तर पर कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य तय करेंगे एवं उसे पूरा करने हेतु प्रतिबद्ध होंगे। इन देशों द्वारा प्रारंभ किए जाने वाले ये प्रयास निश्चय ही सराहनीय हैं। इसी तरह वैश्विक स्तर पर योजना, प्रतिबद्ध एवं सार्थक प्रयास करने की आवश्यकता है।

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