जल संकट

जल संकट
Image : Curious Times

प्रस्तावना :

जल है जीवन का आधार।

जल बिन रेत है यह संसार ।।

 

किसी कविता की यह लाइन मानव जीवन में जल की महत्ता को उजागर करती है। जल के बिना यह सारा संसार रेत के महत्त्वहीन ढेर के अतिरिक्त कुछ नहीं है। 

 

यह सत्य ही है कि पृथ्वी पर जल की उपलब्धता के कारण ही प्राणियों का अस्तित्व और पदार्थों में उपयोगिता का गुण कायम है, कहा भी जाता है- जल ही जीवन है। जल के बिना न तो मनुष्य का जीवन सम्भव है और न ही वह किसी कार्य को संचालित कर सकता है। वस्तुतः जल मानव की मूल आवश्यकता है। यूँ तो धरातल का 70% से अधिक भाग जल से भरा है, किंतु इनमें से अधिकतर हिस्से का पानी खारा तथा पीने योग्य नहीं है। पृथ्वी पर मनुष्य के प्रयोग हेतु कुल जल का मात्र 0.6% भाग ही मृदु जल के रूप में उपलब्ध है। वर्तमान समय में इस सीमित जलराशि का बड़ा भाग प्रदूषित हो चुका है, फलस्वरूप पेयजल की समस्या उत्पन्न हो गई है। जिस अनुपात में जल प्रदूषण में वृद्धि हो रही है, यदि यह वृद्धि यूँ ही जारी रही, तो वह दिन दूर नहीं जब अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा।

 

जल संकट एवं उसका कारण :

जल की अनुपलब्धता की इस स्थिति को ही जल संकट कहा जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि वर्ष 2025 तक विकट जल समस्या से जूझती विश्व की दो-तिहाई आबादी अन्य देशों में रहने को मजबूर हो जाएगी। वस्तुतः जल संकट के कई कारण हैं। पृथ्वी पर जल के अनेक स्रोत हैं, जैसे- वर्षा, नदियां, झील, पोखर, झरने, भूमिगत स्रोत इत्यादि। पिछले कुछ वर्षों में सिंचाई एवं अन्य कार्यों के लिए भूमिगत जल के अत्यधिक प्रयोग के कारण भूमिगत जल के स्तर में गिरावट आई है। सभी स्रोतों से प्राप्त जल मनुष्य के लिए उपयोगी नहीं होता। औद्योगीकरण के कारण नदियों का जल प्रदूषित होता जा रहा है, इन्हीं कारणों से मानव जगत में पेयजल की समस्या उत्पन्न हो गई है।

 

प्राकृतिक संसाधनों में मनुष्य के लिए वायु के बाद जल का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी कारण विश्व की प्रायः सभी सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। जल के अभाव में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज विश्व के 30% देश जल संकट का सामना कर रहे हैं। अमेरिका स्थित वर्ल्ड वाच संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार, हमारे देश में केवल 42% लोग ही पेयजल के रूप में स्वच्छ जल प्राप्त कर पाते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में भारत को सर्वाधिक प्रदूषित पेयजल आपूर्ति वाला देश बताया गया है। धरती की इस अमूल्य प्राकृतिक धरोहर के संरक्षण, संवर्द्धन एवं विकास हेतु वर्ष 1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की अध्यक्षता में ‘राष्ट्रीय जल संस्थान परिषद्’ का गठन किया गया। वर्ष 1987 में भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय द्वारा प्रथम ‘राष्ट्रीय जल नीति’ लागू की गई, जिसका वर्ष 2002 और 2012 में पुनर्संशोधन किया गया।

 

मनुष्य के शरीर में जल की मात्रा 65% होती है। रक्त के संचालन, शरीर के विभिन्न अंगों को स्वस्थ रखने, शरीर के विभिन्न ऊतकों को मुलायम तथा लोचदार रखने के अतिरिक्त शरीर की अन्य प्रक्रियाओं के लिए भी जल की समुचित मात्रा की आवश्यकता होती है। इसके अभाव में मनुष्य की मृत्यु निश्चित है। दैनिक जीवन में कार्य करते हुए, पसीने एवं उत्सर्जन प्रक्रिया के दौरान हमारे शरीर से जल बाहर निकलता है, इसलिए हमें नियत समय पर पानी पीते रहने की आवश्यकता होती है। स्वास्थ्य विज्ञान के अनुसार, एक स्वस्थ्य मनुष्य को प्रतिदिन कम-से-कम चार लीटर पानी पीना चाहिए। जीवन के लिए जल की इस अनिवार्यता के अतिरिक्त दैनिक जीवन के अन्य कार्यों, जैसे- भोजन पकाने, कपड़े साफ करने, मुंह-हाथ धोने एवं नहाने आदि के लिए भी जल की आवश्यकता पड़ती है।

 

मनुष्य अपने भोजन के लिए पूर्णतः प्रकृति पर निर्भर है। प्रकृति में पेड़-पौधे एवं पशु-पक्षी भी अपने जीवन के लिए जल पर ही निर्भर हैं। फसलों की सिंचाई, मत्स्य उद्योग एवं अन्य कई प्रकार के उद्योगों में जल की आवश्यकता पड़ती है। इन सब दृष्टिकोणों से भी जल की उपयोगिता मनुष्य के लिए बढ़ जाती है। जीवन के लिए सामान्य उपयोगिता एवं दैनिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त जल ऊर्जा का भी एक प्रमुख स्रोत है। पर्वतों पर ऊंचे जलाशयों में जल का संरक्षण कर जल-विद्युत उत्पन्न की जाती है। यह देश के कई क्षेत्रों में विद्युत का प्रमुख स्रोत है। हमारा देश कृषि प्रधान देश है और हमारी कृषि वर्षा पर निर्भर करती है। वर्षा की अनिश्चतता के कारण ही कहा जाता है – ‘भारतीय कृषि मानसून के साथ जुड़ा है।’ इस अनिश्चतता को दूर करने के लिए भी जल संरक्षण आवश्यक है।

 

जल संकट से समाधान के उपाय:

जल-संरक्षण वृक्षारोपण में भी सहायक साबित होता है। वृक्ष वर्षा लाने एवं पर्यावरण में जल के संरक्षण में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त, वृक्ष वायुमंडल में नमी बनाए रखते हैं और तापमान की वृद्धि को भी रोकते हैं। अतः जल संकट के समाधान के लिए वृक्षों की कटाई पर नियंत्रण कर वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। वृक्षारोपण से पर्यावरण प्रदूषण को भी कम किया जा सकता है। नदियों के जल के प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए नदियों के किनारे स्थापित उद्योगों के अपशिष्ट पदार्थों को नदियों में प्रवाहित करने से रोकना होगा। शहरों की नालियों के गंदे पानी को भी प्रायः नदियों में ही बहाया जाता है। इस गंदे पानी को नदियों में बहाए जाने से पहले इसका उपचार करना होगा। कारखानों में गंदे पानी के उपचार के लिए विभिन्न प्रकार के संयंत्र लगाने होंगे। 

 

इन सबके अतिरिक्त – जल संचय एवं जल प्रबंधन को भी विशेष महत्त्व दिए जाने की आवश्यकता है। जल की वितरण की उचित व्यवस्था करनी होगी। जहाँ  तक संभव हो, जल का विरतण पाइपों के माध्यम से ही करना चाहिए, ताकि भूमि, जल को न सोखे एवं उसमें बाहरी गंदगी का समावेश न हो। जल, संचय हेतु नए जलाशयों का निर्माण करने के बाद उन्हें पक्का कर भी जल को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता हैं खेतों में सिंचाई के नालों को पक्का कर भी जल संरक्षित किया जा सकता है। वर्षा के पानी के संरक्षण के लिए घरों की छतों पर बड़े-बड़े टैंक बनाए जा सकते हैं। 

 

जल संकट को दूर करने के लिए जल के अनावश्यक खर्च से बचना चाहिए, घरों में नालों को व्यर्थ में नहीं चलने देना चाहिए। जल की खपत कम करने एवं उसके संरक्षण के लिए जनसंख्या पर नियंत्रण भी आवश्यक है। जल को संरक्षित करने के लिए गाँवों में बड़े-बड़े तालाबों एवं पोखरों का निर्माण किया जाना चाहिए, जिनमें वर्षा का जल संरक्षित हो सके और वर्षा के पश्चात जब आवश्यकता हो, इस जल का प्रयोग सिंचाई में किया जा सके। ऐसा करने में भूमिगत जल के स्तर में भी वृद्धि होगी। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में, जहाँ  वर्षा जल की उपलब्धता अधिक होती है, बड़े-बड़े बांधों का निर्माण किया जा सकता है। इन बांधों से जल का संरक्षण तो होता ही है, मत्स्यपालन एवं विद्युत उत्पादन में भी सहायता मिलती है।

 

उपसंहार :

मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का संतुलन बिगाड़ा है और अपने लिए भी खतरे की स्थिति उत्पन्न कर ली है। अब प्रकृति का श्रेष्ठतम प्राणी होने के नाते उसका कर्त्तव्य बनता है कि वह जल संकट की समस्या के समाधान के लिए जल-संरक्षण पर जोर दे। जल मनुष्य ही नहीं पृथ्वी के हर प्राणी के लिए आवश्यक है, इसलिए जल को जीवन की संज्ञा दी गई है। यदि जल की समुचित मात्रा पृथ्वी पर न हो तो तापमान में वृद्धि के कारण भी प्राणियों का जीना मुहाल हो जाएगा।

 

इस समय जल प्रदूषण एवं अन्य कारणों से उत्पन्न जल संकट के लिए मनुष्य ही जिम्मेदार है, इसलिए अपने अस्तित्व की ही नहीं, बल्कि पृथ्वी की रक्षा के लिए भी उसे इस जल संकट का समाधान शीघ्र ही करना होगा और इस समस्या के समाधान के लिए उसे जल-संरक्षण के महत्त्व को स्वीकार करते हुए इसके लिए आवश्यक कार्यों को अंजाम देना होगा वरना बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो जाएगी।

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जेम्स वॉट