जीएम फसल

जीएम फसल
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प्रस्तावना :

जीएम फसल पर विश्व के अन्य देशों के साथ-साथ भारत में भी लंबे समय से बहस छिड़ी हुई है। पिछली संप्रग सरकार में जीएम फसलों को लेकर हमेशा दुविधा बनी रही थी। पूर्व प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने एक बार कहा भी था- “जीएम फसलों के विरुद्ध अवैज्ञानिक पूर्वाग्रहों से ग्रसित होना ठीक नहीं। जैव प्रौद्योगिकी में फसलों की पैदावार बढ़ाने की पर्याप्त संभावना है और हमारी सरकार कृषि विकास हेतु इन नई तकनीकी को प्रोत्साहन देने के प्रति वचनबद्ध है।” बावजूद इसके तत्कालीन पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने फरवरी, 2010 में बीटी बैगन पर शोध को अनुमति नहीं दी।

 

तत्पश्चात पर्यावरण मंत्रालय संभालने वाले श्री जयंती नटराजन ने भी जीएम फसलों के खेतों में परीक्षण (फील्ड ट्रायल) पर रोक लगा दी थी। वर्ष 2014 में केन्द्र में भाजपा सरकार के आने के बाद पर्यावरण मंत्री श्री प्रकाश जावडेकर ने पहले तो 15 जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल की अनुमति दे दी थी, मगर व्यापक विरोध के बाद इस फैसले को रोक दिया। उल्लेखनीय है कि इस मंत्रालय के अधीन आने वाली जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी (जीईएसी) ने अनेक जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल से सम्बद्ध 60 प्रस्तावों को इसी वर्ष स्वीकृति प्रदान की थी। वर्तमान समय में पर्यावरण मंत्रालय ने यह कहकर कि ‘मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है’, इस फैसले को टाल दिया है।

 

जीएम फसल से तात्पर्य :

जीएम अर्थात् जेनेटिकली मोडीफाइड (जीन संवर्द्धित) फसल आनुवंशिकीय रूपांतरण के द्वारा उत्पन्न की जाने वाली फसल है। दूसरे शब्दों में कहें तो जीएम फसलों के उत्पादन में दूसरी प्रजाति के जीन को आरोपित किया जाता है। उदाहरणार्थ; बीटी कॉटन नामक कपास की नई प्रजाति की उत्पत्ति कपास के पौधे में विषैले कीड़े के जीन को जोड़कर की गई है। इस प्रकार, जीन रूपांतरित बीटी कॉटन की पत्तियाँ , फल, जड़, तने सब विषैले हो जाते हैं और इसकी पत्तियाँ आदि खाने पर बालवर्म नामक कीड़े की मौत हो जाती है। इस प्रकार, बीटी कॉटन के पौधे बालवर्म से अपनी रक्षा करने में सफल हो जाते हैं। वर्तमान समय में भारत में 95% बीटी कॉटन किस्म के कपास के पौधे ही उगाए जा रहे हैं।

 

जी.एम. खेती की शुरुआत :

आधुनिक खेतों में जीएम तकनीक का सर्वप्रथम प्रयोग टमाटर पर किया गया था। वर्ष 1994 में अमेरिका में जीएम टमाटर की बिक्री व्यावसायिक तौर पर शुरू हुई। वर्तमान समय में फसल उत्पादन में जीएम तकनीक का सर्वाधिक प्रयोग उत्तरी अमेरिका में होता है। सात यूरोपीय देशों में भी कृषि क्षेत्रों में इस तकनीक को स्वीकृति दे दी गई है। भारत में जीएम फसलों के जमीनी परीक्षण पर शुरू से ही विवाद रहे हैं। राजस्थान में कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में राज्यस्तरीय पर्यावरण कमेटी की स्वीकृति दे दी गई। भारत में जीएम फसलों के जमीनी परीक्षण पर शुरू से ही विवाद रहे हैं। राजस्थान में कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में राज्यस्तरीय पर्यावरण कमेटी की स्वीकृति के बिना ही सरसों के जीएम ट्रायल शुरू तो किए गए, मगर किसान संगठन एवं कई एनजीओ द्वारा काफी विरोध जताने पर ट्रायल रोक दिया गया और फसलें नष्ट कर दी गईं।

 

विपक्षी पार्टी भाजपा पहले से ही इसके विरोध में खड़ी थी। वर्ष 2014 में सत्ता में आने के बाद भाजपा नेतृत्त्व वाली केन्द्र सरकार ने स्पष्ट रूप से कहा कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति मिले बिना राजस्थान में जीएम फसल के परीक्षणों को अनुमति नहीं दी जाएगी। राजस्थान के वर्तमान कृषि मंत्री के शब्दों में- “जीएम फसल भारतीय जलवायु के प्रतिकूल हैं। उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश को जीएम फ्री स्टेट घोषित किया गया है और राजस्थान सरकार भी चाहती है कि उसके राज्य को जीएम फ्री स्टेट घोषित किया जाए।”

 

यद्यपि आज अमेरिका, ब्राजील, अर्जेण्टीना, कनाडा, चीन सहित विश्व के 28 देशों में जीएम फसलें उगाई जा रही हैं। भारत में भी इस तकनीक द्वारा कपास उगाने की अनुमति है, तथापि विश्व की 77% जीएम फसलों की खेती सिर्फ अमेरिका, ब्राजील और अर्जेण्टीना में की जाती है। जीएम फसलों के उत्पादन में अमेरिका नम्बर एक पर है, किंतु जीएम तकनीक का वैश्विक स्तर पर अत्यधिक प्रचार-प्रसार होने के पश्चात् अब तक अमेरिका व ब्राजील के कृषकों द्वारा ही इसका व्यापक स्तर पर प्रयोग किया जा रहा है।

 

जीएम खेती के पक्ष में विचार :

जीएम तकनीक के समर्थकों का मानना है कि विश्व की बढ़ती जनसंख्या की खाद्य आपूर्ति हेतु वनों की घास वाली भूमियों पर खेती की जानी समय की माँग है, पर इससे पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है। यदि परंपरागत कृषि के स्थान पर जीएम फसलें उगाई जाएँ तो पैदावार दोगुनी हो जाएगी और जैव-विविधता एवं पारिस्थितिकी संतुलन पर भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस तकनीक के पक्षधरों के अनुसार, परंपरागत फसलों में कीट-पतंगों द्वारा फसलों की काफी मात्रा में बर्बादी हो जाती है, जबकि जीएम फसलों में कीट-पतंगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता मौजूद रहती है।

 

परंपरागत फसलों में वाइरस, बैक्टीरिया एवं फंफूदी के प्रकोप की काफी संभावना होती है, जबकि जीएम फसलें इनके द्वारा उत्पन्न रोगों से स्वयं को बचा लेती हैं। जीएम समर्थक कहते हैं कि इस नई तकनीक में रसायनों के प्रयोग के बारे में लोगों की धारणा नकारात्मक है, जबकि वास्तविकता यह है कि पूरे विश्व में जीएम कपास व जीएम मक्के की खेती में परंपरागत फसलों की तुलना में कीटनाशकों का प्रयोग काफी कम होता है।

 

जीएम फसलों द्वारा पैदावार बढ़ने से बड़े उद्योगपतियों सहित कृषक वर्ग भी फायदे में रहता है, क्योंकि उसे कम लागत में अधिक पैदावार का लाभ मिल जाता है। ऑस्ट्रेलिया में जीएम तकनीक द्वारा गेहूँ की पैदावार पहले से काफी अधिक हो गई है, जिससे वहाँ के लोगों को अपेक्षाकृत सस्ते मूल्य पर गेहूँ प्राप्त हो रहा है।

 

जीएम खेती के विरोध में विचार :

निश्चय ही जीएम फसलों की खेती से कृषि उत्पादन बढ़ाया जा सकता है, किंतु इस तकनीक से होने वाली हानियों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती। जीएम फसलों के विरोधी इन्हें किसानों व पर्यावरण के विरुद्ध मानते हैं। इनका कहना है कि जीन प्रवर्द्धित फसलों से मिट्टी विषैली होती है, भू-जल स्तर गिरता है, साथ-ही-साथ रासायनिक कीटनाशकों व खादों के अधिक प्रयोग होने से कृषकों पर आर्थिक बोझ भी बढ़ जाता है। जीएम फसलों के कारण विदेशी बीज निर्माता कम्पनियों को काफी फायदा होता है।

 

वर्तमान समय में देश में उगाए जाने वाले कपास के 90% से भी अधिक बीज अमेरिकी कम्पनी मोसैंटोफ से खरीदे जा रहे हैं, जिससे राजस्व का ह्रास होता है। सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर कॉटन रिसर्च, नागपुर के अनुसार, वर्ष 2004 से 2011 के मध्य बीटी कॉटन के उत्पादन में विशेष वृद्धि नहीं देखी गई। अमेरिका का कृषि विभाग कहता है कि जीएम मक्का एवं जीएम सोयाबीन की पैदावार परंपरागत फसल की तुलना में कम होती है। ब्राजील, अर्जेण्टीना आदि देशों में जीएम फसलों की खेती में कीटनाशकों का प्रयोग दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, वहीं अमेरिका और कनाडा में कीटनाशक प्रभावहीन होते जा रहे हैं।

 

यूएसडीए (USDA) के अनुमान के अनुसार, वर्ष 2013 में विश्वभर में इतना खाद्यान्न उत्पादन हुआ कि उससे 13 अरब लोगों के लिए खाद्य आपूर्ति की जा सकती है। इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि आज भी विश्व में अन्न संकट की स्थिति नहीं है, आवश्यकता है सिर्फ सम्पूर्ण व्यवस्था में सुधार लाने की। खाद्यान्न वितरण को ठीक कर भारत एवं अन्य ऐसे ही देशों से भुखमरी दूर की जा सकती है।

 

फिर पर्यावरण और प्राणियों के स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाली जीएम फसलों की आवश्यकता ही क्या है? भारत में भी वर्ष 2002 में बीटी कॉटन की खेती की अनुमति मिलने के पश्चात् इसके कुछ भी अच्छे परिणाम नहीं पाए गए, उल्टे अमेरिका इसके बीजों का मूल्य दिनोंदिन बढ़ाता गया। वहीं स्वयं अमेरिका में भी जीएम फसलों के कारण भारी मात्रा में फैली खरपतवार को समाप्त करने हेतु अधिक शक्तिशाली रसायनों का प्रयोग किया जाना आवश्यक हो गया है। आज अमेरिका ‘सुपरवीड्स’ की समस्या से ग्रस्त है।

 

उपसंहार :

निश्चय ही भारत को जीएम बीजों को खेतों में परीक्षण करने से पूर्व चूहों आदि पर प्रयोग करके उसके परिणामों को अच्छी तरह जाँच लेना चाहिए, क्योंकि फील्ड ट्रायल के द्वारा भी फसलों का दूषित प्रभाव तेजी से फैलता है। पर्यावरण मंत्रालय को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

 

हमें पूर्णतः सचेत रहने की आवश्यकता है कि जीएम के जीन तेजी से प्राकृतिक परिवेश में मिलकर हमारी खाद्य श्रृंखला का अंग बन जाएँ। जीएम फसलों का मनुष्यों पर पड़ने वाले प्रभावों का दीर्घकालिक परीक्षण किए बिना भारत जैसे विकासशील देशों में इसके प्रयोग की अनुमति देना निश्चय ही खतरों से खाली नहीं होगा। बावजूद इसके इससे संबंधित शोध-अध्ययन बंद किया जाना विज्ञान के द्वार को अवरुद्ध करने जैसा होगा। अतः मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण को हानि न पहुँचे, ऐसे शोध अध्ययन की गुंजाइश रखनी होगी।

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