भारतीय कृषक
प्रस्तावना :
भारत कृषि और किसानों का देश है। आज भी भारत की मूल आत्मा गाँवों के उन झूमते खेतों में है जहाँ जीवन अंगड़ाइयाँ लेता है। जीवन की इस अंगड़ाई को जन्म देता है किसान। एक मैली-सी पैंट शर्ट या कुर्ता-पायजामा पहने आज का भारतीय किसान भी उन धोती पहने किसानों से कुछ अलग नहीं लगता जो मुगल या ब्रिटिश काल में अपने मुरझाए होंठों पर आशा के फूल सजाए अपनी सूनी आंखों से अपने भविष्य को निहारा करता था। यह सच है कि आजादी के बाद देश के किसानों की स्थिति में कुछ परिवर्तन आया है। परंतु आज भी वह समाज की सबसे अंतिम पंक्ति में खड़ा है। आज भी किसान अपने उस सम्मान को पाने के लिए तरस रहा है जो सम्मान उसे अवश्य ही प्राप्त होना चाहिए। इसलिए विश्व के महान विचारक सिसरो ने भी कहा है- ‘किसान मेहनत करके पेड़ लगाते हैं पर स्वयं उन्हें ही उनके फल नसीब नहीं हो पाते।’ निःसंदेह खून-पसीना एक कर दिन-रात खेतों में मेहनत करने वाले कृषकों का जीवन अत्यंत कठोर व संघर्षपूर्ण है। अधिकतर भारतीय कृषक निरंतर घटते भू-क्षेत्र के कारण गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं। दिन-रात खेतों में परिश्रम करने के बाद भी उन्हें तन ढकने के लिए समुचित कपड़ा नसीब नहीं होता। जाड़ा हो या गर्मी, धूप हो या बरसात उन्हें दिन-रात बस खेतों में ही परिश्रम करना पड़ता है। इसके बावजूद उन्हें फसलों से उचित आय नहीं प्राप्त हो पाती। बड़े-बड़े व्यवसायी कृषकों से सस्ते मूल्य पर खरीदे गए खाद्यान्न, सब्जी एवं फलों को बाजारों में ऊंची दरों पर बेच देते हैं। इस तरह कृषकों का श्रम लाभ किसी और को मिल जाता है और वे अपनी किस्मत को कोसते हैं।
किसानों की खराब अवस्था के कारण :
किसानों की ऐसी दयनीय स्थिति का एक कारण यह भी है कि भारतीय कृषि मानसून पर निर्भर है और मानसून की अनिश्चितता के कारण प्रायः कृषकों को कई बार कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। समय पर सिंचाई नहीं होने के कारण भी उन्हें आशानुरूप फसल की प्राप्ति नहीं हो पाती। ऊपर से आवश्यक उपयोगी वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि के कारण कृषकों की स्थिति और भी दयनीय हो जाती है तथा उनके सामने दो वक्त की रोटी की समस्या खड़ी हो जाती है। सरकारी नीतियाँ भी कृषकों का बहुत सपोर्ट नहीं करतीं और किसानों द्वारा उपजाई फसल का लाभ बिचौलिए ले जाते हैं।
कृषकों के लिए सरकारी योजनाएँ:
देश के विकास में कृषकों के योगदान को देखते हुए कृषकों और कृषि-क्षेत्र के लिए कार्य योजना का सुझाव देने हेतु वर्ष 2004 में डॉक्टर एम. एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में ‘राष्ट्रीय कृषक आयोग’ का गठन किया गया। वर्ष 2006 में आयोग द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में कृषकों के लिए एक विस्तृत नीति के निर्धारण की संस्तुति की गई। इसमें कहा गया कि सरकार को सभी कृषिगत उपजों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करना चाहिए तथा यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि कृषकों को, विशेषतः वर्षा पर निर्भर कृषि वाले क्षेत्रों में न्यूनतम समर्थन मूल्य उचित समय पर प्राप्त हो सके।
राष्ट्रीय कृषक आयोग की संस्तुति पर भारत सरकार ने राष्ट्रीय कृषक नीति, 2007 की घोषणा की। इसमें कृषकों के कल्याण एवं कृषि के विकास के लिए कई बातों पर जोर दिया गया है। इसमें कही गई बातें इस प्रकार हैं- सभी कृषिगत उपजों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित किया जाए। मूल्यों में उतार-चढ़ाव से कृषकों की सुरक्षा हेतु मार्केट रिस्क स्टेबलाइजेशन फण्ड की स्थापना की जाए। सूखे एवं वर्षा संबंधी जोखिमों से बचाव हेतु एग्रीकल्चर रिस्क फण्ड स्थापित किया जाए। सभी राज्यों में राज्यस्तरीय किसान आयोग का गठन किया जाए। कृषकों के लिए बीमा योजना का विस्तार किया जाए। कृषि संबंधी मामलों में स्थानीय पंचायतों के अधिकारों में वृद्धि की जाए। राज्य सरकारों द्वारा कृषि हेतु अधिक संसाधनों का आवंटन किया जाए।
प्रायः यह देखा जाता है कि कृषकों को फसलों, खेती के तरीकों एवं आधुनिक कृषि उपकरणों के संबंध में उचित जानकारी उपलब्ध नहीं होने के कारण खेती से उन्हें उचित लाभ नहीं मिल पाता, इसलिए कृषकों को कृषि संबंधी बातों की जानकारी उपलब्ध करवाने हेतु वर्ष 2004 में किसान कॉल सेंटर की शुरूआत की गई। इसके अतिरिक्त, कृषि संबंधी कार्यक्रमों का प्रसारण करने वाले ‘कृषि चैनल’ की शुरूआत की गई है। केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण विकास बैंक के जरिए देश के ग्रामीण क्षेत्रों में ‘रूरल नॉलेज सेंटर्स’ की भी स्थापना की है। इन केंद्रों में आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी व दूरसंचार तकनीक का उपयोग किसानों को वांछित जानकारियाँ उपलब्ध कराने के लिए किया जाता है।
कृषकों को समय-समय पर धन की आवश्यकता पड़ती है। साहूकार से लिए गए ऋण पर उन्हें अत्यधिक ब्याज देना पड़ता है। कृषकों की इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, उन्हें साहूकारों के शोषण से बचाने के लिए वर्ष 1998 में ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ योजना की भी शुरूआत की गई। इस योजना के फलस्वरूप कृषकों के लिए वाणिज्यिक बैंकों, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों तथा सहकारी बैंकों से ऋण प्राप्त करना सरल हो गया है।
उपसंहार :
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, इसलिए अर्थव्यवस्था में सुधार एवं देश की प्रगति के लिए किसानों की प्रगति आवश्यक है। इस संदर्भ में प्रोफेसर गुलर की कही बात महत्त्वपूर्ण है- ‘भारत की दीर्घकालीन आर्थिक विकास की लड़ाई कृषक द्वारा जीती या हारी जाएगी।’ केंद्र एवं राज्य सरकार द्वारा प्रारंभ की गई विभिन्न प्रकार की योजनाओं एवं नई कृषि नीति के फलस्वरूप कृषकों की स्थिति में सुधार हुआ है, किंतु अभी तक इसमें सन्तोषजनक सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है। आशा है विभिन्न प्रकार के सरकारी प्रयासों एवं योजनाओं के कारण आने वाले वर्षों में कृषक समृद्ध होकर भारतीय अर्थव्यवस्था को सही अर्थों में प्रगति की राह पर अग्रसर कर सकेंगे।
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