भारत में शिक्षा का निजीकरण

भारत में शिक्षा का निजीकरण
Image : Khaleej Times

प्रस्तावना :

भारत में ब्रिटिशकाल से ही निजी संस्थाएं शिक्षण-कार्य में संलग्न थीं, लेकिन स्वतंत्र भारत में उनकी भागीदारी में बहुत वृद्धि हुई है। स्वतंत्रता के पश्चात् जहाँ  एक ओर हमारे पास संसाधनों का अभाव था, वहीं दूसरी ओर जनसंख्या में भी तीव्र गति से वृद्धि हुई। अतः एक बड़ी आबादी के लिए शिक्षा की समुचित व्यवस्था करना सरकार के वश की बात नहीं थी, इसलिए भारत में शिक्षा में निजी क्षेत्र को बिना किसी अवरोध के प्रोत्साहन दिया गया। निजी क्षेत्र को शिक्षा की ओर आकर्षित करने के लिए सरकार ने कई कदम उठाए, जैसे- निजी संस्थानों को आर्थिक सहायता देना, उनके लिए अनुदान का प्रावधान करना, शैक्षणिक इमारत हेतु कम मूल्य पर भूमि उपलब्ध कराना आदि। यही कारण है कि यहाँ सरकारी शिक्षा व्यवस्था के समानान्तर निजी शिक्षा प्रणाली भी संचालित है। शिक्षा के निजीकरण ने इस क्षेत्र के प्रसार में सकारात्मक योगदान दिया है।

 

निजीकरण से लाभ:

शिक्षा के निजीकरण के कारण शिक्षा का प्रसार तेजी से हो रहा है। जिन लोगों को प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल रहने के कारण किसी व्यावसायिक या अन्य पाठ्यक्रम में प्रवेश नहीं मिल पाता, वे अधिक धन खर्च करके मनोवांछित शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह, शिक्षा के निजीकरण के कारण देश का धन सकारात्मक कार्यों में लग रहा है। नई शिक्षण संस्थानों की स्थापना के कारण नवयुवकों को रोजगार के नए अवसर उपलब्ध हो रहे हैं। शिक्षण से सम्बंधित व्यवसायों को भी गति मिल रही है। पिछले कुछ वर्षों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले लोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। इतनी अधिक संख्या में प्रतिवर्ष सरकारी नौकरियों का सृजन कर पाना सम्भव नहीं है। निजी संस्थानों की अधिकता के कारण इन लोगों को भी रोजगार के अवसर उपलब्ध हो रहे हैं। इस तरह, शिक्षा के निजीकरण के कारण देश के आर्थिक विकास को भी गति मिल रही है। यही नहीं शिक्षा के क्षेत्र में निजी भागीदारी से उत्पन्न प्रतिस्पर्द्धा के फलस्वरूप शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार भी हो रहा है।

 

निजीकरण से हानि :

शिक्षा में निजीकरण से यदि कुछ लाभ हुए हैं, तो इसके नुकसान भी कम नहीं हैं। शिक्षा में निजीकरण के कारण स्थिति अब ऐसी हो चुकी हैं कि इस पर अंकुश लगाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए अनुदान एवं सरकारी सहायता के फलस्वरूप भारत में निजी शिक्षण संस्थाओं की बाढ़-सी आ गई है। इनमें से अधिकतर निजी शिक्षण संस्थाएं रेवड़ियों की तरह डिग्रियाँ बांट रही हैं। जगह-जगह डीम्ड विश्वविद्यालय खुल रहे हैं।

 

शिक्षा आज व्यापार का रूप धारण कर चुकी है। शिक्षा के निजीकरण का लाभ निर्धन लोगों को नहीं मिल रहा है, क्योंकि निजीकरण से शिक्षा महंगी हो गई है। शहरों के निजी विद्यालयों में प्राथमिक स्तर की कक्षाओं के बच्चों से भी हजारों रुपये मासिक शुल्क लिया जा रहा है। आम आदमी अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाने के लिए इतने शुल्क को वहन करने में अक्षम है। शिक्षा के निजीकरण के कारण कोचिंग एवं ट्यूशन संस्कृति को बढ़ावा मिला है। बड़े-बड़े उद्योगपति भी शिक्षा में धन का निवेश कर रहे हैं। शिक्षा में धन के निवेश को अच्छा कहा जा सकता है, किंतु उनका उद्देश्य शिक्षा का विकास नहीं, बल्कि धन कमाना होता है, जिसके कारण कई अन्य समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। उद्योगपति धन का निवेश करने के बाद धन कमाना चाहते हैं, इसके लिए वे शिक्षकों एवं अभिभावकों का शोषण करते हैं।

 

शिक्षा के निजीकरण से भारत में निजी शिक्षण संस्थानों की बाढ़-सी आ गई है, किंतु लाखों की संख्या में मौजूद इन निजी शिक्षण संस्थानों में से 90% संस्थान या तो शिक्षण की गुणवत्ता के पैमाने पर खरे नहीं उतरते या फिर उनके पास पर्याप्त मात्रा में शैक्षिक संसाधन नहीं हैं। इन सबके अतिरिक्त, निजीकरण के कारण फर्जी शिक्षण संस्थानों की संख्या भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जो चिंता का विषय है।

 

इस तरह, निजी क्षेत्र में प्रबंधन की अक्षमता एवं मनमानी के कारण न तो शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हो पा रही है और न ही गुणवत्ता के पैमाने पर ये शिक्षण संस्थान खरे उतर पा रहे हैं। इसके साथ ही निजी क्षेत्र के शैक्षिक संस्थानों द्वारा शोषण एवं गलत मार्गदर्शन के कारण लाखों विद्यार्थियों का भविष्य अंधकारमय हो रहा है। यही कारण है कि शिक्षा के निजीकरण के औचित्य पर सवाल उठाए जा रहे हैं।

 

उपसंहार :

पहले धनी व्यक्तियों द्वारा शिक्षण संस्थानों की स्थापना सामाजिक सहयोग एवं उत्तरदायित्व निभाने के लिए की जाती थी। अब इसका उद्देश्य सामाजिक सहयोग न होकर धनार्जन हो गया है, इसलिए शिक्षा के निजीकरण से जो लाभ होना चाहिए, वह समुचित मात्रा में समाज को प्राप्त नहीं हो रहा है। यदि शिक्षा के निजीकरण में मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति पर रोक लगाई जाए एवं शिक्षकों की सेवा-शर्तों का संरक्षण सरकार द्वारा हो, तो शिक्षा के निजीकरण के लाभ वास्तविक रूप में मिल पाएंगे। शिक्षा की अनिवार्यता के दृष्टिकोण से इसके सार्वभौमीकरण की बात की जा रही है। इस कार्य में निजी सहभागिता अनिवार्य है, इसलिए शिक्षा का निजीकरण तो अनिवार्य है, किंतु इसमें इस बात का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए कि शिक्षा के उद्देश्य बाधित न होने पाएं।

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