भारत-चीन संबंध

भारत-चीन संबंध
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प्रस्तावना :

चीन भारत का दूसरा महत्त्वपूर्ण पड़ोसी देश है। यह एशिया का तेजी से उभरता हुआ शक्तिशाली देश है। भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों की सीमाओं से स्पर्श करता हुआ चीन क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत से बड़ा है, इन दोनों देशों को एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी के रूप में जाना जाता है। यद्यपि भारत और चीन के संबंध ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक रूप से हजारों साल पुराने हैं, स्वतंत्रता के पश्चात भी दोनों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध रहे। यहाँ  तक कि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन का सहयोग करते हुए उसे संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थायी सदस्यता दिलवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और वर्ष 1955 में बाण्डंग सम्मेलन में दोनों देशों ने एक-दूसरे का पूर्ण सहयोग करते हुए ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा लगाया, तथापि तिब्बत विवाद के कारण इस मैत्रीपूर्ण संबंध में दरार आ गई। लेकिन तिब्बत में चीनी प्रशासन के दमन का समर्थन भारत सरकार नहीं कर सकती थी। चीन द्वारा भारत पर आक्रमण के बाद यह दरार और बढ़ गई।

 

दलाई लामा का मसला :

चीन ने बहुत क्रूरता से इस विद्रोह को विफल कर दिया। वास्तव में, वर्ष 1956 में तिब्बत के खम्पा क्षेत्र में हुए विद्रोह को आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा का समर्थन मिल रहा था। इसके बाद 31 मार्च, 1959 को दलाई लामा ने भारत में शरण ली। भारत द्वारा दलाई लामा को शरण देना चीन को बहुत बुरा लगा और उसने भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपमानित करने के उद्देश्य से 20 अक्टूबर, 1962 को भारत के उत्तर पूर्वी सीमांत क्षेत्र में लद्दाख की सीमा पर आक्रमण करके जम्मू-कश्मीर के कुछ क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। दलाई लामा को शरण देने का कारण तो बस एक बहाना था, वास्तव में चीन इस आक्रमण के द्वारा अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर भारत को कमजोर करना चाहता था। चीन के इस आक्रमण से जवाहरलाल नेहरू को बड़ा आघात पहुँचा और वर्ष 1964 में उनकी मृत्यु हो गई। यहाँ  से भारत-चीन के शत्रुतापूर्ण संबंधों की शुरूआत हुई।

 

बनते-बिगड़ते रिश्ते :

वर्ष 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्धों में चीन ने परोक्ष रूप से पाकिस्तान का साथ देकर अपने शत्रुतापूर्ण इरादे पूरी तरह से जाहिर कर दिए। वर्तमान समय में भी चीन सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों पर अपना अधिकार होने की बात करता है साथ ही वह चीनी सागर और हिंद महासागर में भी अपना प्रभुत्व बढ़ाने की कोशिशें कर रहा है। वह चारों ओर से भारत को सामरिक मोर्चे पर घेरने की तैयारी में भारतीय सीमा के क्षेत्रों में चौड़ी कर लेने वाली सड़कों का जाल बिछा रहा है और ब्रह्मपुत्र नदी के प्रवाह को मोड़ने की परियोजना पर भी काम कर रहा है। ये सभी गतिविधियाँ भारत के हित में नहीं हैं।

 

वर्ष 1954 में डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने कहा था- ‘यदि भारत ने तिब्बत को मान्यता प्रदान न की होती, जैसा कि उसने वर्ष 1949 में चीनी गणराज्य को प्रदान की थी, तो आज भारत-चीन सीमा विवाद न होकर तिब्बत-चीन सीमा विवाद होता। चीन को ल्हासा पर अधिकार देकर प्रधानमंत्री ने चीनी लोगों को अपनी सेनाएँ भारत की सीमा पर लाने में पूरी सहायता की है।’

 

यद्यपि दोनों देशों के मध्य गतिरोधों को दूर करने के प्रयास वर्ष 1968 से ही शुरू हो गए थे। वर्ष 1988 में राजीव गांधी ने चीन की यात्रा करके मित्रता की पहल की। वर्ष 2008 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी राजीव गांधी के नक्शे-कदम पर चलते हुए दोनों देशों के मध्य संबंध सुधारने की कोशिश की। इस दौरान दोनों देशों की ओर से ’21वीं शताब्दी का साझा लक्ष्य’ दस्तावेज जारी किया गया, जिसके फलस्वरूप दोनों के मध्य व्यापार, विज्ञान एवं तकनीकी आदि क्षेत्रों में अब तक अनेक समझौते हो चुके हैं और दोनों की आर्थिक भागीदारी में वृद्धि हुई है। वर्ष 2014 में श्री नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पश्चात् चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग की यात्रा के दौरान दोनों देशों के मध्य सीमा विवाद को निपटाने पर चर्चा की गई थी, साथही 16 विभिन्न समझौतों पर हस्ताक्षर हुए थे। निःसंदेह चीनी राष्ट्रपति की इस यात्रा से आपसी भाईचारे की भावना का विकास हुआ, किंतु दोनों देशों के संबंध अभी भी संदेह के वातावरण में ही आगे बढ़ रहे हैं।

 

डोकलाम विवाद :

2017 में चीन ने डोकलाम क्षेत्र में भारत एवं म्यांमार के विरोध के बावजूद सड़क मार्ग का निर्माण प्रारंभ कर दिया। डोकलाम में सड़क निर्माण कर उसने सीधे म्यांमार की सम्प्रभुता को चुनौती दिया था तथा भारत के लिए एक घेरा-बंदी तैयार कर रहा था। भारत ने भी अपनी सेना को वहाँ तैनात कर दिया। लगभग 20 दिनों तक तनातनी रहने के बाद आखिरकार कूटनीतिक प्रयास सफल हुए और चीन सड़क निर्माण के पीछे हट गया।

 

उपसंहार :

इस प्रकार यह सुनिश्चित है कि चीन की नीयत भारत के प्रति साफ नहीं है और भारत को प्रत्येक परिस्थिति में चीन से सावधान रहना चाहिए।

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