बचपन की यादें

बचपन की यादें
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बचपन, यह शब्द जुबान पर आते ही मन किसी अनजानी तरंग से आप्लावित हो उठता है। जैसे कोई शीतल बयार हृदय के किसी कोने से उठकर तन-मन को विभोर कर देती है। सुदर्शन फकीर की ये पंक्तियाँ भी बचपन की व्याख्या के लिए शायद पूरी नहीं पड़ती हैं – 

 

‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,

भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, 

मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, 

वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी ।’

 

बचपन का वह सुहाना समय जब हम देश-दुनिया के सारे झंझावातों से परे अपने ही संसार में मग्न रहा करते थे। आज हम यही कामना करते हैं कि हमारे बचपन के सुहाने दिन पुनः लौट आएँ, भले ही इसके लिए कोई हमारी सारी दौलत और ख्याति क्यों न ले ले किंतु यह कटु सत्य है कि बचपन लौटकर नहीं आता और रह जाती हैं केवल उसकी यादें। इन यादों का भी जीवन की खुशियों से सीधा संबंध होता है।

 

मुझे अपना बचपन बहुत याद आता है। मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद एक छोटे-से गाँव बसडीला में हुआ था। यह गाँव कुशीनगर, जहाँ भगवान बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ था उससे थोड़ी ही दूर स्थित है। इसकी आबादी लगभग दो हजार है। इस गाँव में एक राजकीय प्राथमिक विद्यालय एवं एक राजकीय माध्यमिक विद्यालय है। मेरी शिक्षा-दीक्षा भी इन्हीं विद्यालयों में हुई। पड़ोस के गाँवों की तुलना में इन विद्यालयों में पठन-पाठन की अच्छी व्यवस्था थी। यहाँ पढ़ने के दौरान कुछ सहपाठी मेरे घनिष्ठ मित्र बन गए थे। जिसमें एक दुर्गेश प्रताप सिंह भी थे। हमारा बचपन साथ-साथ खेलते-कूदते, पढ़ते-लिखते बीता। हम साथ-साथ तालाब पर नहाने जाते और आमों के छोटी-छोटी अमिया बीना करते थे। हम लोग कक्षा आठवीं के बाद अलग हो गए। खैर, कक्षा में मैं अपने इन्हीं मित्रों के साथ बैठता था। आवश्यकता पड़ने पर हम एक-दूसरे की मदद भी करते थे।

 

पढ़ाई के बाद खाली समय में मैं अपने मित्रों के साथ खेलना पसंद करता था। खेल में मुझे गुल्ली-डंडा बहुत प्रिय था। मैं प्रायः रविवार के दिन अपने मित्रों के साथ पास के बाग में गुल्ली-डंडा खेलता था। गुल्ली-डंडा के अलावा मैं शतरंज भी खेलता था। इसके अतिरिक्त मैदान में खेले जाने वाले खेलों में मुझे कबड्डी खेलना भी अच्छा लगता था। 

 

इन खेलों के खेल, खेलने के दौरान कई बार मित्रों से कहा-सुनी भी हो जाती थी। तत्पश्चात् वे मुझसे रूठ जाया करते थे, मगर मैं उन्हें मना लेता था। इस प्रकार हमारी मित्रता पुनः कायम हो ही जाती थी। थोड़ा बड़ा होने के बाद मैं अपने मित्रों के साथ क्रिकेट भी खेलने लगा, लेकिन पढ़ाई की व्यस्तता एवं समयाभाव के कारण मैं खेल-कूद पर कम ही समय दे पाता था। हाई स्कूल तक पहुँचते-पहुँचते न जाने कैसे मैं खेलकूद को पूर्णतः छोड़ चुका था।

 

मुझे याद है, मैं बचपन में कभी-कभी अपने गाँव में स्थित एक तालाब में स्नान करने के लिए जाता था। तब वहाँ लोगों को तैरते हुए देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य होता था। मैं भी तैरना सीखना चाहता था। एक दिन मेरे एक मित्र ने मुझे तैरने के गुण सिखाए। मैंने उन्हें आजमाकर देखा, तो लगा कि मैं भी सरलतापूर्वक तैर सकता हूँ। इसके बाद तो हर रोज तैरने का अभ्यास मेरे लिए आवश्यक हो गया। तैरने के अतिरिक्त तालाब के पास जाने का मेरा दूसरा उद्देश्य वहाँ स्थित बाग में किनारे की सैर भी था। तालाब के किनारे स्थित वृक्ष के जड़ पर बैठकर मुझे तालाब देखना बहुत अच्छा लगता था। छुट्टी के दिनों में वहाँ बगीचे में आम के पेड़ों से आम तोड़ना और खाना खिलाना मुझे आज भी याद आते हैं।

 

बचपन के दिन बेफिक्री के होते हैं। इस समय प्रायः पढ़ाई-लिखाई की चिंता नहीं होती। मुझे भी केवल अपना गृहकार्य पूरा करने से मतलब रहता था। स्कूल का काम खत्म करने के बाद मुझे पढ़ाई से कोई मतलब नहीं रहता था, किंतु पाँचवीं कक्षा के बाद पढ़ाई के प्रति मेरा लगाव धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उसके बाद मुझे पाठ्यक्रम की किताबों के अतिरिक्त समाचार-पत्र एवं बाल-पत्रिकाएँ पढ़ना भी अच्छा लगने लगा। बाल-पत्रिकाओं में ‘नन्दन’, ‘नन्हे सम्राट’ एवं ‘पराग’ मुझे प्रिय थीं।

 

पत्रिकाओं के अतिरिक्त मैं मनोरंजन के लिए कॉमिक्स भी पढ़ा करता था। राजा पॉकेट बुक्स से प्रकाशित ‘नागराज’, ‘सुपर कमांडो ध्रुव’, ‘भोकाल’ इत्यादि मेरे प्रिय कॉमिक्स पात्र थे। मैं पत्रिकाएँ एवं कॉमिक्स अपने मित्रों के साथ बांटकर पढ़ता था। मेरे पास जो पत्रिकाएँ एवं कॉमिक्स होती थीं, उन्हें मैं अपने मित्रों को पढ़ने के लिए देता था। मेरे मित्र भी मुझे उनके बदले अपनी पत्रिकाएँ एवं कॉमिक्स पढ़ने के लिए दे दिया करते थे।

 

ग्राम्य जीवन का अपना एक अलग ही आनंद है। अपने मित्रों के साथ मिलकर खेतों से मटर तोड़कर खाने में जो स्वाद आता था, वह अब तो मटर-पनीर में भी नहीं मिलता। मिट्टी-पत्थर के ढेले से तोड़ गए झड़बेरी के बेर में जो स्वाद मैंने बचपन में प्राप्त किया है, वह सेब-संतरे में भी दुर्लभ है, बेर और अमरूद की बात तो छोड़ ही दीजिए। गर्मी के दिनों में आम के बाग में सबसे छुप-छुपाकर तोड़े गए खट्टे आमों का स्वाद भी बम्बईया, माल्दह के मीठे आमों से कहीं बेहतर था। 

 

बरसात के मौसम में सबसे नजरें चुराकर भीगना एवं भीगते हुए कागज की नावों को रास्ते में पानी में बहाने का भी एक अलग ही आनंद था। सभी मित्र अपनी-अपनी नावों के साथ नावों की दौड़ के लिए तैयार रहते थे। इस तरह बरसात का मजा दोगुना हो जाता था। बरसात के मौसम में प्रायः मेरे गाँव में हर साल बाढ़ आती थी।

 

गाँव के लोग दुआएँ करते थे कि इस साल बाढ़ न आए और हम सभी मित्रों की यह कामना होती थी कि बाढ़ आए तो जीने का मजा आ जाए, लेकिन अब सोचता हूँ कि उस समय मैं कितना गलत सोचा करता था। हालांकि उस वक्त बाढ़ का सामना मेरे बालमन की खेल एवं आनंद की भावनामात्र थी। वास्तव में, बाढ़ अपने साथ विनाश ही लाती है।

 

धीरे-धीरे मैं बड़ा होता गया और बचपन पीछे छूटता गया। बचपन के दिन जब बीतने लगे तो दीन-दुनिया की चिंता सताने लगी और अच्छे जीवन के लिए संघर्ष में बचपन कहाँ गुम हो गया, पता ही नहीं चला। ‘तू न सही तेरी याद सही’ की तरह बचपन की यादें आज भी कम खुशी नहीं देतीं।

 

आज भी जब बचपन की याद आती है, तो सोचता हूँ- ‘कोई लौटा दे मेरे बचपन के वे खुशियों भरे दिन’। कोई मेरे खूबसूरत दिन लौटा तो नहीं सकता, किंतु जिंदगी की भागदौड़ में भी बचपन को याद कर खुश हो लेने का मौका मैं कभी नहीं छोड़ता। आज भी जब हम पुराने मित्र मिलते हैं तो न जाने कितनी सुहानी यादें ताजा हो जाती हैं।

 

बचपन के संबंध में टॉम स्टॉपर्ड ने बहुत ही अच्छी बात कही है – ‘यदि तुम अपने बचपन को संजोकर रख सको, तो तुम कभी बूढ़े नहीं हो सकते।’

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