जीवन में कला की महत्त्व
प्रस्तावना :
कला मानव मन की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। मानव मन जब अपने आत्मभाव से विमुग्ध होकर संसार से परे किसी अन्य चेतना में डूबता है तब उससे निःसृत भाव ही कला में परिवर्तित हो जाते हैं। इसलिए सुकरात कहते हैं- ‘एक श्रेष्ठ नागरिक को जन्म देना भी उतनी ही महान कला है जितनी एक सुंदर मूर्ति की रचना।’
कला का भावात्मक तात्पर्य :
वस्तुतः ‘कला’ क्या है इसका सटीक उत्तर दे पाना सरल नहीं है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कला के संदर्भ में अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है- ‘अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही कला है।’ सच तो यह है कि- ‘कला का संबंध केवल स्वानुभूति से प्रेरित प्रक्रिया से है। जब कोई कलाकार स्वानुभूति को सहज, स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त कर देता है, तो वही कला का रूप धारण कर लेती है। अतः अभिव्यक्ति की पूर्णता ही कला है… अभिव्यक्ति ही उसका सौंदर्य है।
एक विद्वान ने कला को परिभाषित करते हुए लिखा है – ‘कला, कलाकार के आनंद के श्रेय और प्रेम तथा आदर्श और यथार्थ को समन्वित करने वाली प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति है।’
वास्तव में, कला सुंदरता की अभिव्यक्ति और समृद्धि की परिचायक है। कहा जाता है कि जिस जाति की कला जितनी समृद्ध और सुंदर होगी, वह जाति उतनी ही गौरवशाली और प्राचीन होगी। इसलिए कला को किसी भी राष्ट्र की संस्कृति का मापदंड भी कहा जाता है। जब व्यक्ति भौतिक रूप से सुरक्षित होता है और उसे किसी बात का भय नहीं होता, तब वह मानसिक और आत्मिक संतुष्टि को प्राप्त करने की दिशा में प्रयासरत होता है। इस क्रम में जब उसकी अतिरिक्त ऊर्जा सौंदर्यानुभूति के रूप में प्रकट होती है, तो कला कहलाती है। कला निरंतर ऊँचा उठाने के प्रगतिशील विचार की परिचायक है। इसी के माध्यम से नवीन विचारों, आचार और मूल्यों का सृजन होता है।
भारतीय कला का वैशिष्ट्य :
कला की दृष्टि से भारत बहुत समृद्ध है। भारत को विविधता का देश कहा जाता है। कला के संदर्भ में भी भारत में बहुत विविधता है, जो इसे संसार के अन्य सभी देशों से विशिष्ट बनाती है। भारत के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो नृत्य, कला, हस्त कलाएँ, भित्ति चित्र, गीत-संगीत, अभिनय, साहित्य, भवन-निर्माण आदि सभी कला की परिधि में शामिल किए जाते हैं। बिहार की मधुबनी चित्रकारी, असोम का बिहू नृत्य, भरतनाट्यम नृत्य, कथककली नृत्य, अजंता-एलोरा के भित्ति चित्र, संगीत की विभिन्न विधाएँ एवं राग-रागिनी, अभिनय की शैलियाँ , रामायण, महाभारत, संगम साहित्य, मेघदूत, दिलवाड़ा के जैन मंदिर, ताजमहल आदि के माध्यम से सौंदर्य की अभिव्यक्ति हुई है। अतः ये सभी कला के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं। ये सभी भारतीय संस्कृति का अहम हिस्सा हैं। भारत की कलाएँ और उनसे जुड़ी कृतियाँ बहुत ही पारम्परिक और साधारण होने पर भी इतनी सजीव और प्रभावशाली हैं कि उनसे देश की समृद्ध और गौरवशाली विरासत का स्वतः ही अनुमान हो जाता है।
कला का उद्देश्य :
वस्तुतः कला और जीवन का बहुत घनिष्ठ संबंध है। कला के विकास का उद्देश्य कभी आत्मानुभूति होता है, तो कभी आनंद और विनोद । कला के माध्यम से कभी संघर्ष किया जाता है, तो कभी उस संघर्ष से मुक्ति पाई जाती है। कला यश-प्राप्ति, धन प्राप्ति, शांति-प्राप्ति तथा समाज को सही राह दिखाने का माध्यम भी बनती हैं हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान, बाबू गुलाबराय ने जीवन में कला की महत्त्व को दर्शाते हुए लिखा है – ‘कला का उदय जीवन से है, उसका उद्देश्य जीवन की व्याख्या ही नहीं, वरन् उसे दिशा देना भी है। वह जीवन में जीवन डालती है। वह स्वयं साधन न बनकर एक बृहत्तर उद्देश्य की साधिका होकर अपने को सार्थक बनाती है। वह जीवन को जीने योग्य बनाकर उसे ऊँचा उठाती है। वह जीवन में नए आदर्शों की स्थापना कर उसका प्रचार करती है और हमारे जीवन की समस्याओं पर नया प्रकाश डालती है।’ अतः इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कला केवल उल्लास, हर्ष और आनंद को प्रकट करने का माध्यम ही नहीं है, बल्कि समाज को परिवर्तन की ओर भी उन्मुख करती है और उसमें एक नवीन चेतना जागृत करती है।
ऐसा कई बार हुआ है कि कला ने मानव जाति को एक नई राह दिखाई, कभी साहित्य के माध्यम से तो कभी सिनेमा के रूप में, कभी चित्रकला के माध्यम से तो कभी किस अन्य रूप से, परंतु आलोचना की प्रवृत्ति इसके सामानान्तर चलती रहती है। कला के क्षेत्र में किसी भी नए प्रयोग को सामान्यतः विरोध झेलना ही पड़ता है। कई बार तो यहाँ तक कह दिया जाता है कि इससे समाज में अनैतिकता, अश्लीलता और बुरी प्रवृत्तियों को बल मिलता है। इसी मानसिकता के चलते राजा रवि वर्मा, सलमान रश्दी आदि कलाकारों को समाज की विरोधी प्रतिक्रियाएँ सहनी पड़ती हैं। ऐसा किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता।
उपसंहार :
वास्तव में किसी भी पहलू के दो रूप होते हैं – सकारात्मक और नकारात्मक तथा एक सच्चे कलाकार का उद्देश्य कला के सकारात्मक पक्ष को उद्घाटित करना ही होता है, परंतु यदि समाज उसमें अच्छाई न देखकर बुराई ही देखे तो इसमें न कला का दोष है और न कलाकार का। अतः यह समाज का कर्तव्य है कि वह कला के सकारात्मक पक्ष को समझते हुए, उससे सीख ले और जीवन को उत्कृष्ट बनाए। यह कला का दायित्व है कि वह निरर्थक और अवांछनीय परंपराओं और रीति-रिवाजों पर प्रहार करे तथा उनका अंत करे और यह समाज का दायित्व है कि वह कला से ताजगी एवं नया स्वरूप प्राप्त कर उन्नति की ओर अग्रसर हो। कलाहीन समाज सभ्य समाज कभी भी नहीं हो सकता। सत्य तो यह है कि कई बार कला जीवन को मार्ग दिखाने में भी सक्षम है। प्राचीन काल से लेकर आज तक अनेक ऐसी चित्रकारियाँ, अनेक ऐसी रचनाएँ हुई हैं जिन्होंने अपने युग को ही बदल दिया है। कला से ही हम प्राचीन काल की सभ्यता और संस्कृति की गहराई को भी ठीक से समझ सकते हैं।
अधिक निबंधों के लिए :